हिन्दू धर्म और पर्यावरण
भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी, कथित सेक्युलर और लिबरल लोग हमेशा भारत के हिन्दू उत्सवों का जोरशोर से विरोध करने लगते है। कुछ लोग विकास और पर्यावरण को एकदूजे के विपरीत समझते है। यह बात सच है की हमे विकास करना ही चाहिए परन्तु पर्यावरण का शोषण करने हेतु नहीं पर्यावरण का पोषण करने हेतु। हमे प्राकृतिक संसाधनों का पर्याप्त उपयोग करना चाहिए न की दुरूपयोग। ऋग्वेद में जिस तरह से प्रकृति से विभिन्न अंगो का वर्णन है उससे यह बात स्पष्ट होती है की हिन्दू धर्म ने हमेशा से पर्यावरण की चिंता की है।
भारत में हमेशा चिंतन के विविध पहलु रहे है। भारत हमेशा विश्व को प्रेरणा देने वाला देश रहा है। आज वर्तमान में चल रही पर्यावरणीय समस्या को भारत ही रास्ता दे सकता है। भारत की संस्कृति में केंद्र स्थान पर रहे कुछ चिन्तनो को आपके समक्ष रखता हु।
हिन्दू धर्म और नदियाँ :
सद्गुरु जग्गी वासुदेव जी ने रैली फॉर रिवर्स अभियान चलाया है, वः वाकई प्रंशसा के पात्र है। हम नदियों को लोकमाता कहकर पुकारते है। शास्त्रों में भी स्नान करते समय सप्त नदियों को याद करने का विधान है।
गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्
वति । नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मि
न् संनिधिं कुरु ॥
विश्व की किसी भी संस्कृति नदी और इसकी महत्ता को लेकर इतनी चिंतीत नहीं है। फिर भी आज विकास की अंधी दौड़ की बजह से हमारे देश में नदिया प्रदूषित हो रही है। नदियों का प्रदूषण न हो और उनका अच्छी तरह से उपयोग हो, यही हमारी संस्कृति की सिख है। जिस देश में गंगाष्टक,यमुनाष्टक और नर्मदाष्टक की रचना हुई हो; वहां पे नदियों की यह दशा सोचनीय है।
हिन्दू धर्म और धरती:
सुबह उठते ही हम सर्वप्रथम धरती माता को वंदन करते है एवं उनसे क्षमा याचना करते है की हम उन पर न चाहते भी पैर रख रहे है। सुबह की यह प्रार्थना,
समुद्र-वसने देवि, पर्वत-स्तन-मंडिते ।
विष्णु-पत्नि नमस्तुभ्यं, पाद-स्पर्शं क्षमस्व मे ॥
इसका तदश निरूपण करती है की हमे धरती का उपकारी रहना चाहिए। धरती हमारे बोज को ग्रहण करती है और हमारी ज्यादातर प्रक्रिया धरती पर ही होती है एवं धरती का विशिष्ट योगदान है।
यदि सभी लोग धरती को इसी तरह से माँ मने लगे तो हम लोग धरती के प्रदूषण को तो दूर करेंगे ही अपितु पूरी पृथ्वीमाता की रक्षा कर सकेंगे।
हमने तो वसुधैव कुटुंबकम का विचर विश्व के समक्ष रखा। जिसका अर्थ यह होता है की पूरी वसुधा यानि की पृथ्वी हमारे लिए एक कुटुंब जैसी है। विश्व के हर एक पशु, पक्षी और वनस्पति के प्रति मित्र्ताभाव यही हमारी संस्कृति है।
हिन्दू धर्म और वृक्ष:
हर हिंदू के घर में प्राय: तुलसी का पौधा रहता है। नित्य उसका पानी से सिंचन होता है, तीज त्यौहार पर घर में उसकी पूजा अर्चना भी होती है। हमारे देश में ईश्वर को चढाने वाले भोग में भी तुलसी पत्र रखा गया है। तुलसी के बिना पूजा अधूरी है। हम तो माला में भी तुलसी का उपयोग करते है। उसी तरह बरगद,नीम,पीपल के पेड़ो का भी विशिष्ट महत्व है। गीता में भी स्वयं श्री कृष्ण कहते है की अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां यानि की वृक्षों में वह पीपल है। पीपल सबसे ज्यादा प्राणवायु देता है।
हमारी सबसे पुराणिक चिकित्सीय पद्धति ‘आयुर्वेद’ ही इस बात का प्रमाण है की हम पूर्व से ही वनस्पति के अभ्यासु रहे हे। हमने वनस्पति की प्रकृति, महत्व और उसके उगने वाले स्थानों के बारे में सोचा है। हमे हमारे पूर्वजो से वनस्पति और वृक्षों के बारे में इतना ज्ञान देने के लिए आभार व्यक्त करना चाहिए।
वृक्षों को काटने की बजाय उनका संवर्धन हो ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है। वृक्ष का महत्व एक संस्कृत सुभाषित में दिखाया गया है।
छायाम् अन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयम् आतपे |
फलन्त्यपि परार्थाय वृक्षा: सत्पुरुषा इव ||
वृक्ष खुद धुप में खड़े होकर दुसरो को छाया प्रदान करते है, अन्य को फल देते है, वृक्ष सच में एक सत्पुरुष की तरह ही है।
करवा चौथ और वटसावित्री के व्रत तो हमारे प्रकृति पूजा के साक्षात् उदाहरण है। ऋग्वेद की एक ऋचा में फसल के कितने भाग किन पशु को देने चाहिए उसके भी वर्णन है। हम तो वृक्ष को काटने से पहले भी उसकी प्रार्थना कर क्षमा मांगते है।
हमारे यहाँ नदीस्नान,पर्वत पर तीर्थयात्रा करना इत्यादि का महत्व मनुष्य को धार्मिक मान्यताओं को पर्यावरण के साथ जागृत करना है। हम आशा रखे की हम भारत के लोग श्री कृष्ण बनकर अर्जुन रूपी विश्व को अच्छा मार्गदर्शन दे सके।