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चिराग़ तले अँधेरा: विचारों से संग्राम में हिंदुओं की हार क्यों?

चिराग़ तले अँधेरा: विचारों से संग्राम में हिंदुओं की हार क्यों?

The article has been translated into Hindi by Avatans Kumar

प्रधानमंत्री के निस्वार्थ, कुशल और उत्साहवर्धक नेतृत्व के बावजूद भारत की स्थिति मनहूस ही दीखती है।

पर्यावरण को नष्ट करनेवाले ‘विकास’ से कहीं दूर स्वराज और अंत्योदया से जुड़ी सांस्कृतिक परिकल्पना को छोड़ने का समय तो अभीतक नहीं आया है, परंतु इन क्षणों में जो हाथ से निकला जा रहा है उसे हमें गम्भीरता से समझने की आवश्यकता ज़रूर है।

नरेंद्र मोदी के काम-काज का असर भारत के लोगों में अनेकों सतहों पर देखा जा सकता है। उनकी पहचान एक ईमानदार, निस्वर्थी, ‘फ़क़ीर’, सबको समान रूप से देखने वाले की है और उनकी नीतियाँ ग़रीबों को समर्थ और शक्तिशाली बनानेवाली।

आधारभूत हिंदुत्व के नर और नारायण

लेकिन ग़ौरतलब प्रश्न यह है कि क्या भारत की आम जनता अपनी मान-मर्यादा और अपनी नित्य ख़ुशी पा सकेगी? क्या भारत की जनता, जिसका आत्मसम्मान लगातार ज़हरीले दुष्प्प्रचारों की वजह से निर्मूल, दृष्टिविहीन और विक्षुब्ध हो चुका है, अपने आप को (दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में) दिव्य ब्रह्म-स्वरूप देख सकेगी? लोगों की नज़र जब भी अपने फ़ोन (या इंटरनेट) पर जाए और उन्हें हमेशा अपनी सोच, अपनी परम्पराओं, और अपनी पहचान के ख़िलाफ़ आक्षेप ही मिले, ऐसे में आज़ादी और स्वतंत्रता कितने दिनों तक बची रह सकती है?

अगर इन परिस्थितियों में बदलाव नहीं आता है तो हमें ऐसी दशा से भी दो-चार होना पड़ सकता है जिसमें ‘नर’ को तो हम सम्भवत: येन-केन-प्रकारेण बचा भी लें, परंतु ‘नारायण’ का आदर्श तो हाथ से गया ही प्रतीत होता है। नरेंद्र मोदी जैसा द्रष्टा ऐसा चाहता हो ऐसा तो मुझे नहीं लगता है। परंतु बिना ‘विचारों’ की लड़ाई का लेख-जोखा लिए हमारे देश में मात्र दो पीढ़ियों में ही अनभिज्ञ और विनाशकारी लोगों के सिवा कुछ बचा नहीं रहेगा। ये बचे-खचे लोग कहने को तो भारतीय, हिंदू, मुसलमान, ईसाई, इत्यादि जो भी हों, परंतु रहेंगे अपने गूढ़ सांस्कृतिक तजुरबों और नित्य लक्षणों से वंचित ही।

यह हिंदुओं और हिंदुत्व के लिए प्रलय को घोषणा नहीं है। न ही इसे भाजपा के ख़िलाफ़ हिंदुओं को धोखा देने की बात कह कर भड़काने कोशिश समझें। दर असल चिंता का विषय भविष्य में हिंदुओं की स्वायत्तता का मुद्दा है। कुछ लोगों की शिकायत है है भाजपा जब विपक्ष में रहती है तभी हिंदू हितों की बात करती है। पर सत्ता में आते ही भाजपा की नीति पुराने ही ढर्रे में आ जाती है। यही नहीं, वह यहाँ तक कि सेक्यूलरवादी बनने की कोशिश भी करने लगती है। हालाँकि इस प्रकार का लांछन वर्तमान सरकार पर लगाना उचित नहीं होगा। इस सरकार के सदस्य समवैधानिक दक्षता और हिंदू चेतना के प्रति एक व्यक्तिगत निष्ठा का सामंजस्य दिखाते ज़रूर प्रतीत होते हैं।

हालाँकि एक महत्वपूर्ण मोर्चा ज़रूर नज़र आ रहा है जिसपर कि वर्तमान नेतृत्व कुछ कमज़ोर दिख रहा है। वह है जन-मानस में हिंदू दृष्टिकोण की वैधता और उसे ऊँचा दिखाना। पर लगता है, शायद ऐसा करना उन्हें आता ही नहीं है। डिजिटल मीडिया और सहभागीदारीवाले जनतंत्र की बात तो भाजपा वाले करते हैं लेकिन अपनी बात को सामने रखने के मामले में अक्षम ही दिखते हैं। वोट की लड़ाई लड़ने में तो इनका नेतृत्व बड़ा माहिर लगता है, पर यह वोट की लड़ाई है नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि लोग ले-दे कर मोदी के साथ हैं। पर जैसा कि पिछले कुछ सालों में देखने में आया है (और शायद आगे भी ऐसा ही देखने को मिले) कि एक निष्ठावान हिंदू नेता के शाशन में होने के बावजूद हिंदुओं के शिकायतों और माँगों की अवहेलना होती रही है। हिंदुओं की आत्मा को उसके हाड़-माँस से अलग कर के उनको बड़ी बेरुख़ी से देखा जाता रहा है।

ज़हरीली मीडिया और शिक्षा जगत से जुड़ी रिवायतें न सिर्फ़ हिंदुओं की (राजनैतिक) शिकायतों की न्यायसंगतता पर प्रश्नचिह्न लगती हैं बल्कि हिंदुओं के अस्तित्व पर भी प्रहार करती हैं। हिंदुओं पर इस प्रकार का दबाव कई दशकों से बना हुआ है। अगर आप हिंदुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत नहीं उगलते हैं तो आपको हिंदू उग्रवादी कह कर दरकिनार कर दिया जाता है। हिंदुओं के प्रति घृणा और मिथ्या को हिंदुओं की सेक्यूलर, और वैज्ञानिक परिभाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

लोग इस दौर से पहले गुज़र चुके है। ऑनलाइन और सोशल मीडिया मंचों पर इन पुराने विचारों को जम कर चुनौती दी गयी है। एक आंदोलन सा चल निकला है। पर एक आंदोलन हमेशा आंदोलन बन कर ही नहीं चल सकता। जैसा कि मैंने अपने हाल-फ़िलहाल के ऑर्गनायज़र वाले लेख में ज़िक्र किया है, इस आंदोलन को दफ़्तरों और अन्य संस्थानों में भी जीत हसिल करने की आवश्यकता है। आग लगने पर आग बुझाने के बजाय सिर्फ़ ‘आग, आग!’ चिल्ला कर निरुद्देश्य दौड़ते रहने का कोई अभिप्राय नहीं बनता है। ऐसा करना किसी के हित में नहीं है।  जैसे-जैसे समय गुज़रता जाएगा, हिंदुओं को अपने वैचारिक धरातल और अंततः अपने अस्तित्व के लिए और ज़ोर-शोर से लड़ना होगा। हिंदुओं की और दूसरे लोगों के साथ इस दुनियाँ में साथ-साथ रहने की सम्भावना और कमज़ोर होती जाएगी। भारत की ८० प्रतिशत जनता को निंदा और अपमान की ज़िंदगी जीने को मजबूर होना पड़ेगा। जो आत्मसम्मान दुनियाँ के हरेक प्राणी को आसानी से मयस्सर है हिंदुओं को उसके लिए भी एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ेगा।

हिंदू कार्यकर्ता और उनके रोज़गार की सम्भावनाएँ

अभी हाल ही में मैंने अपने कुछ हिंदू कार्यकर्ताओं से, जो कि मेरे फकेबुकिया दोस्त भी हैं, दो सवाल पूछे। पहला सवाल आनेवाली पीढ़ी में हिंदू जागरूकता के विषय में था और दूसरा हिंदू कार्यकर्ताओं के स्वास्थ्य जुड़ा था। लेकिन इन प्रश्नों के कुछ आश्चर्यजनक जवाब मिले जिनका मेरे प्रश्नों से कोई सीधा संबंद नहीं था। मेरे प्रश्नों से अलग हटकर लोगों ने जवाब के रूप में अपने हिंदू हितों से जुड़े कार्यकलापों की वजह रोज़गार की सम्भावनाओं पर पड़ते बुरे असर के विषय में लिखा। ये सामान्य लोग थे, किसी शैक्षिक संस्थानों में काम करने वाले प्रोफ़ेसर नहीं थे। इन लोगों को अपने रोज़ी-रोटी के मामलों में सिर्फ़ हिंदू हितों से जुड़े होने की वजह से मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, यह जानकार मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। सामान्यतः ऐसे काम करनेवालों को मानवाधिकार और सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने वाला माना जाता है। पर ऐसी सोच का फ़ायदा हिंदुओं को कदापि नहीं मिलता है। जबतक हिंदुओं को उत्तेजित करने वाले मुद्दों को संचार माध्यमों, शैक्षिक संस्थानों, इत्यादि में समुचित स्थान नहीं मिलता है ज़मीरदार हिंदुओं को हमेशा डर कर रहना पड़ेगा। वो अपनी बात बिना दूसरों को दुःख पहुँचाए कभी नहीं कह पाएँगे। ‘आग’ वाले उदाहरण से मेरा यही तात्पर्य है।

हमें अपने परिपेक्ष्य और दृष्टिकोण को संस्थागत करना अत्यंत ही ज़रूरी है। संस्थानों से बाहर निकल कर इसपर कुछ सफलतापूर्वक काम कनरे की निपुणता का अभाव है। परंतु यह भी सच है कि ये संस्थान हमारे हितैषी नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि इस तरह का काम पहले नहीं हुआ है। पर ज़रूरी नहीं कि ऐसे प्रयास सफल ही हुए हों। इतना ही नहीं, कई बार तो इन प्रयासों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी हुई है जिसने हमारे आंदोलनों को ओछा भी किया है। कम से कम ऐसे दो प्रयासों की गवाही तो मैं स्वयं ही दे सकता हूँ। पर ये सारे प्रयास स्वयमसेवी रहे हैं। सरकारी स्तर पर ऐसा अभी तक कुछ नहीं किया गया है। ज़ाहिर है सरकार आम जनता में इस प्रकार के प्रयासों की माँग या इन विषयों पर बात-चीत की ज़रूरत, ख़ास तौर पर शिक्षा में, नहीं पाती है।

 बातचीत के मुद्दे को बदलने का तरीक़ा ग़लत

सरकार भविष्य में इन मुद्दों से कैसे निबटेगी यह तो समय ही बताएगा। पर तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं।

पहला है बात-चीत के मुद्दे को पूरी तरह से अनदेखा कर देना। बड़े मिडिया और ऊँचे शैक्षिक संस्थान वालों को हिंदुओं पर हमला करने का जितना ज़्यादा समय मिलेगा हिंदू मुद्दों वाले कार्यकर्ता हिंदुओं की मुख्य धारा से और अलग-थलग होते जाएँगे। कुल मिला-जुला कर यही लोग हैं जो भाजपा की राजनैतिक नींव को दुरुस्त करेंगे।

दूसरा, अपने प्रतिद्वंदियों से दोस्ती का हाथ बढ़ाना। इस दोस्ती के हाथ के पीछे यह सोच होती है कि भाजपा अब एक नई बड़ी पार्टी है जो सबको साथ लेकर चलती है। पर यह ‘सबको साथ लेकर चलने वाली’ छवि बड़ी ही तीव्रता से अस्वीकार कर दी जाती है। ‘सबको साथ लेकर चलने वाली’ छवि के साथ अपने सहयोगियों को चुप करा कर और उनसे एक समुचित दूरी रखने के सिलसिले की भी शुरुआत होती है मानो हिंदुओं के साथ दिख जाना किसी की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल हो।

तीसरा, अपने प्रतिद्वादियों को ‘देशद्रोही’ या ‘प्रेस्टीच्यूट’ कह कर नज़रंदाज करना है।  साथ-ही-साथ जहाँ सम्भव हो सरकारी तंत्रों का उपयोग करना है, जैसे पाठशालाओं में राष्ट्रगान की अनिवार्यता।

मेरे विचार में ये तीनों रास्तों में सिर्फ़ ख़ामियाँ ही नहीं हैं, वे अपरिपक्व भी हैं। सत्ता में आने के बाद भी किसी आंदोलन का आक्रोश और नाराज़गी के बल-बूते पर बढ़ने की अपेक्षा करना सही नहीं है। आक्रोशों की विपरीत प्रतिक्रिया भी हो सकती है। ‘बढ़ते फ़ासिवाद’ जैसे दुशप्रचारों को बढ़ावा मिल सकता है। सारा का सारा आंदोलन क्षण बाहर में धराशायी हो सकता है। भारत के लोग अभी फ़िलहाल तो आकांक्षाओं से ओत-प्रोत हैं। छोटे-बड़े क़स्बों और गाँवों में लोग कितना भी बड़े मीडिया और शैक्षिक संस्थानों वालों का विरोध करते हों, एक न एक दिन वो हिंदुओं से घृणा करने को मजबूर हो जाएँगे क्योंकि ऐसा करना ही उनके लिए अपने सामाजिक स्तर को ऊँचा करने का एकमात्र रास्ता रह जाएगा। हिंदुओं को नीचा दिखाने वालों के लिए तो रोज़गार के कई रास्ते हैं, परंतु पर हिंदुओं की मुख़ालफ़त करने वालों के लिए रोज़गार के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं — चाहे वो मीडिया संस्थानों में हों या शैक्षिक संस्थानों में।

जहाँ तक नए पाठ्यक्रम और देशभक्ति दर्शाने वाले व्यवहारों को थोपने की बात है, ऐसे तौर-तरीक़ों से नाराज़गी और आक्रोश को और बढ़ावा ही मिलता है। साथ ही साथ इससे ‘भारत में फ़ासिवाद’ जैसे दुशप्रचारों को बढ़ावा भी मिलेगा। विचारों की लड़ाई प्रतिद्वादियों के ज़ेहन में घुस कर जीती जाती है, उसे घेर कर व्यवस्थित रखकर नहीं। इसके लिए सरकार को उन आंदोलनकारियों से कुछ सिखना पड़ेगा जिन्होंने उसे इस मुक़ाम तक पहुँचाया है। इसके लिए सरकारी महकामों और संस्थानों से जुड़े लोगों से आत्मविश्वास और शराफ़त से भिड़ना होगा और वह भी उनके द्वारा तय किए गए नियम-क़ायदों के तहत। सरकारी दफ़्तरों और संस्थानों में बिलकुल न के बराबर पकड़ भाजपा के विजय-चक्र की सबसे कमज़ोर कड़ी है, यह बात सबको मालूम है। २०१५ के शुरुआत में महाराष्ट्र में ‘मीट बैन’ के प्रसंग में इन तत्वों को खुले-आम अपने कुछ दाँव-पेंच को दिखाने का मौक़ा मिला। ‘मीट बैन’ को ‘इंटॉलरन्स’ के मुद्दों से जोड़कर ‘हिंदू’ शब्द से जुड़ी सभी पहचानों को सारे-आम बली का बकरा बना दिया गया।

ये सरकारी महकामों और संस्थानों वाले लोग काफ़ी बलशाली हैं। पर उनकी शक्ति का कारण, जैसा  कि कई लोग सोचते हैं, विदेशी धन नहीं है। बल्कि उनकी शक्ति कारण सिर्फ़ यह है कि वे अपना काम बड़े ही अच्छे ढंग से करते हैं। पत्रकार, प्राध्यापक, लेखक, सक्रिय कार्यकर्ता – ये सब लोग क़रीब दो दशकों से एक ही चीज़ ही पढ़ते, पढ़ाते, और फिर उसी की मुख़ालफल भी करते आए हैं। उसपर वो पूरी तरह भरोसा भी करते है। उनके सिद्धांत दरअसल ग़लत हैं या सही, इसका उनपर कोई असर नहीं पड़ता। उनके पास अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए हर प्रकार के माध्यम उपलब्ध हैं। इस परिस्थिति को बदलने का सिर्फ़ एक ही रास्ता है – या तो पूँजी-निवेश कर शिक्षा और मीडिया में एक समानांतर माध्यम की शुरुआत की जाए या फिर वाद-विवाद, सम्वाद, शाश्वत सत्य के बल से विचारों की लड़ाई जितने का माद्दा तैयार किया जाए।

फ़िलहाल हमारे आंदोनलन में इतनी गति है जिसकी बिना पर हम अपने मुक़ाम तक पहुँच सकते हैं। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब हमारा राजनैतिक नेतृत्व इस वैचारिक लड़ाई के रूप को पहचाने और इस आंदोलन के प्रति अपनी बेरुख़ी छोड़े। वैसे इस आंदोलन के सामने अभी भी कई चुनौतियाँ हैं। इसे अपनी वैचारिक लड़ाई साधन और संस्था के वग़ैर लड़नी पड़ रही है। इसपर से सरकार का अपनी अयोग्यता की वजह से रोड़े अटकना एक अक्षम्य अपराध और धोखे के समान देखा जाएगा। उन वायदों के साथ धोखा जिसे हमारे नेताओं ने दशकों, या यहाँ तक कि सदियों की निराशा के बाद किया था।

दुनियाँ की ताक़तवर दास्तानें

अगर भारत को बचाना है तो उसे अपनी दास्तान अपनी ही ज़ुबानी सुनाने के प्रयासों की ज़बरदस्त शुरुआत करनी होगी। इस एक ख़रब आबादी वाली क़ौम की आत्मा और उसका अतीत सदियों से अटूट रहे हैं।  इनके ज़ेहन में इस धरा को पर्यावरण की त्रासदी से बचाने की एक स्वाभाविक ललक भी है। इस क़ौम को काठ का उल्लू बनाकर कब तक रखा जा सकता है? दुनियाँ के सामने अपनी बात रख पाने की जंग अभी जारी है। पर हम तो अभी हाशिए तक भी नहीं पहुँच पाए हैं। जहाँ तक कि विचारधारा की बात है, अभी सिर्फ़ तीन तरह की रिवायतें नज़र आती हैं: (१) इस्लाम की, (२) सेक्युलर-उदारवादी वैश्वीकरण की, और (३) मेक अमेरिका ग्रेट अगेन की जिसे हम वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के रूप में भी देख सकते हैं, पर पश्चात्य ईसाईयत के रूप में नहीं। चीन की गिनती अभी इस श्रेणी में नहीं हो सकती। चीन एक ताक़त तो है लेकिन उसकी दास्तान इन तीनों दास्तानों के सामने ओछी ही है।

भारत की न तो अपनी दास्तान ही है और न ही उसके पास ताक़त है। पर हाँ, इस मक़सद के लिए पूँजी लगाना बहुत ही ज़रूरी है। वरना हिंदुस्तानियों को बिजले के बल्ब, शौचालय और सेल फ़ोन तो ज़रूर हासिल हो जाएँ पर उनके हाथ हमेशा ख़ाली ही रहेंगे। और न ही उनकी आँखों के आगे रहेगी उनके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्वाकांक्षाओं की झलक। बिना एक शक्तिशाली कहानी के ज़ोर के नर कभी नारायण नहीं बन सकते।

Featured Image: The Wire

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Vamsee Juluri

Dr. Vamsee Krishna Juluri is a professor of media studies at the University of San Francisco and the author of Rearming Hinduism (www.rearming hinduism.com).