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छात्र राजनीति: कॉन्ट्रोवर्सी की औलादें जो फेसबुकिया यूथ आइकॉन्स गढ़ती हैं

छात्र राजनीति: कॉन्ट्रोवर्सी की औलादें जो फेसबुकिया यूथ आइकॉन्स गढ़ती हैं

ये ग़ज़ब बात है कि कॉलेज से तुरंत (या ४-५ साल पहले) निकले हुए लोग अचानक से छात्र राजनीति, अभिव्यक्ति, मतभेद और विरोध के ऊपर चर्चा करने लगे हैं। इन सब के केन्द्र में जो बात है उस पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता।

वो ये है कि छात्र राजनीति से विश्वविद्यालयों में दंगे, मारपीट, हत्याओं आदि के अलावा ऐसा क्या सकारात्मक मिला है आजतक? क्या किसी को याद है कि कोई भी विश्वविद्यालय, कभी भी, इन छात्र संगठनों को लेकर किसी सकारात्मक पहलू के कारण चर्चा में आया हो? याद कीजिए। याद नहीं आएगा।

कभी भी ऐसे संगठनों ने, जिनमें आजकल शिक्षक भी शामिल हो रहे हैं, कोई भी सकारात्मक परिचर्चा की हो और उसका कोई भी परिणाम, मीडिया के द्वारा या ऐसे ही आप तक पहुँचा हो? मुझे याद नहीं है।

मैं जब जेएनयू की बात सुनता हूँ, जाधवपुर की बात सुनता हूँ, ओसमानिया की बात सुनता हूँ, दिल्ली की बात सुनता हूँ तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि इसको बुलाया था, तो उसने विरोध किया और फिर मारपीट हुई। या फिर इसके लिए कि फलाने जगह नारेबाज़ी हुई, फलाने जगह इसको घुसने नहीं दिया आदि आदि।

विश्वविद्यालय का परिवेश पढ़ने के लिए होता है। वहाँ आप एक विशेष शिक्षा लेने जाते हैं। वहाँ के शिक्षक एक विषय के बड़े जानकार होते हैं, और आपको एक विषय की सारी जानकारी मिले, इसके लिए आप बीए, एमए, एमफिल, पीएचडी आदि करते हैं। चाहे कला हो, विज्ञान हो, वाणिज्य हो या और कुछ। यहाँ आने का प्राथमिक उद्देश्य पठन-पाठन होता है।

लेकिन हमारे देश के बहुत ही कम कॉलेज, विश्वविद्यालय तो शायद एक भी नहीं, कभी भी इस कारण से ख़बरों में आते हैं कि उन्होंने पेटेन्ट कराया, उनका ये रिसर्च भारत के गाँवों की स्थिति सुधारेगा, उनका ये विचार समाज में बदलाव लाएगा। ऐसा नहीं के बराबर होता है। आपकी आईआईटी तक तो ऐसे चीज बनाकर ख़ुश होती है जो दस साल पहले पूरी दुनिया बना चुकी होती है।

माफ़ कीजिएगा, लेकिन विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत ही घटिया है इस देश में। रीसर्च को फ़ंडिंग नहीं मिलती, वो एक बहुत बड़ा कारण है। लेकिन इन चिरकुट संगठनों ने कितनी बार भूख हड़ताल की है इस बात को लेकर कि उनके यहाँ वैज्ञानिक शोध के लिए पैसे का आवंटन बढ़े?

विश्वविद्यालयों में राजनीति का परिणाम कब अच्छा आया है? कब किसी छात्र संगठन के आंदोलन पर सरकारों कुछ कर दिया? और हाँ, ध्यान रहे कि वो फेसबुक युग से पहले और बिना हिंसा के हों। मणिपुर से लेकर दिल्ली तक और हैदराबाद से लेकर अलीगढ़ तक, विश्वविद्यालयों के छात्र आंदोलन के नाम पर मारपीट के अलावा कुछ नहीं करते। इनकी कोई विचारधारा नहीं है। चाहे वो वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, बीच वाले हों या तटस्थ, इनकी करनी से सिर्फ और सिर्फ कॉलेज बंद हुए हैं, पढ़ाई रुकी है और बच्चों के सर फूटे हैं, उन्हें मानसिक आघात पहुँचा है।

छात्रों के विचार हैं तो वो रखें, जरूर रखें लेकिन उसका तरीक़ा दूसरे को गाली देकर या रॉड से पीटकर जताना नहीं है। ये विचारधाराओं की जंग नहीं है। ये बाबा बनने की और वर्चस्व की लड़ाई है कि जब तक हम हैं, हम इस कॉलेज में ‘कुछ’ हैं। इसी ‘कुछ होने’ के कारण, और मैं भी अगले साल ‘कुछ’ हो जाऊँगा के कारण ही आप ये तमाम झगड़े देखते हैं।

इसीलिए आपको हर तरह के संगठन की चुप्पी हर तरह की बात पर दिख जाएगी जो उनके आकाओं या पार्टियों द्वारा की जाती है। वो दूसरों के वैसा करने पर बवाल खड़ा कर देंगे, और ख़ुद की पार्टी के लोगों के करने पर चुप रहेंगे कि ‘चलो ठीक हुआ।’

और ये नए लोग, नए-नए लोग जो कॉलेजों में हैं, या कुछ साल पहले निकले हैं। इन्हें जो आवाज मिली है, या ये जो लिंक शेयर करते दिखते हैं, इनको आप ऐसे देखिए कि ये वो लोग हैं जो कुछ ‘हो नहीं पाए’। इनकी और कोई भी पहचान नहीं है। ये विचारधारा को या पंथ को जानते तक नहीं। चाहे जिसको ये गरिया रहे हों, या जिसके साथ खड़े हों, इन्हें दोनों के ही बारे में कुछ भी नहीं पता। इनको पूछिए तो कहेंगे कि वहाँ ये पढ़ा, उसने मुझे बताया। बस इतना रीसर्च है, जिसमें दूसरा पक्ष जानने की जरूरत इन्हें नहीं होती।

ये बस झंडा लेकर खड़े हैं क्योंकि इनको शॉर्टकट पता चल गया है। शॉर्टकट ये है कि अपने विचार दो पैराग्राफ़ में लिख देने, या अपने मतलब के लिंक शेयर कर देने, या किसी की आपबीती शेयर कर देने से लोग इन्हें विचारवान मान लेते हैं। जबकि इनके विचार अपने हैं नहीं। ये एक भीड़ का हिस्सा हैं जिनको कुछ भी पता नहीं। ये बस भागते हैं क्योंकि इनके दोस्त भाग रहे हैं।

याद कीजिए कि जब फेसबुक नहीं था और चौबीस घंटे चलने वाली मीडिया नहीं थी जिसके लिए फेसबुक पोस्ट और ट्विटर के बंडलों से आर्टिकल और तीस मिनट का प्रोग्राम तैयार हो जाता है, तब क्या इस देश में सभाएँ नहीं होती थीं, तब क्या वैचारिक मतभेद नहीं था, तब क्या प्रदर्शन नहीं होते थे?

सब होता था लेकिन तब फेसबुकिया नपुंसक वीरों की तरह हम फ़िल्टर बदलकर अपना सपोर्ट नहीं देते थे, तब लोग जेपी के साथ पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में कूदते थे और उसके कारण राजनीति में, समाज में एक बदलाव की लहर उठती थी।

आज वो दौर नहीं है। आज गुंडागर्दी है और वर्चस्व की लड़ाई में बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, सांसदों तक को इतना समय है कि वो कन्हैया, गुरमेहर, जसलीन, उमर, अनिर्बान जैसे टुच्चे विद्यार्थियों को यूथ आइकॉन बना देते हैं। टुच्चा इसीलिए कह रहा हूँ कि मुझे इनकी बातों में कोई वज़न नहीं दिखता, इनका जन्म विवाद से हुआ है। ये कॉन्ट्रोवर्सी की औलादें हैं, जिनके विचारों में मौलिकता नहीं, बल्कि सस्ती लोकप्रियता पाने की होड़ दिखती है।

आप इनको अपने हीरो बना रहे हैं? इनसे पूछिए कि क्या जमीन पर इन्होंने कुछ भी ऐसा किया है जिससे इनको वहाँ बिठा दिया गया है जहाँ बाबा आम्टे और भीमराव अंबेदकर को पहुँचने में दशकों लग गए। एक भाषण देकर आप आज के दौर में विवेकानंद और जय प्रकाश नारायण बन जाते हैं। इनको आप आज का भगत सिंह और आजाद बताते हैं? कन्हैया को तुम नेहरू बना देते हो क्योंकि उसने बारह बजे माइक पर ‘शेम-शेम’ के नारे लगवाए?

क्या आपको पता भी है कि भगत सिंह और आजाद के विचार क्या थे और उन्होंने क्या किया है? बचपन में एक चैप्टर पढ़ लेने और लेजेंड ऑफ भगत सिंह देख लेने से आपको उनके विचारों का पता नहीं लगता, आपको सिर्फ नाम याद हो जाते हैं और एक लाइन में आप ये कहने को सक्षम हो जाते हैं कि इन्होंने देश के लिए कुछ किया था।

और जो आपके यूथ आइकॉन हैं, उन्होंने देश के लिए नहीं सिर्फ फेसबुक के लिए कुछ किया है, मीडिया के लिए कुछ किया है। इस बात को समझिए और अनर्गल बातों में मत फँसिए। फँसिएगा भी तो मेरा कोई नुक़सान नहीं है। पाँच साल बाद आपको ख़ुद आभास होगा कि आप क्या कर रहे हैं। या शायद आभास आज भी होता है लेकिन फेसबुक पर छा जाने की लालसा के कारण आप ये चुनाव कर लेते होंगे कि कहाँ बोलूँ और कहाँ चुप रह जाऊँ। क्योंकि आपके आइकॉन्स उन बातों पर चुप रह जाते हैं।

छात्र राजनीति गुंडागर्दी के अलावा और कोई भी सकारात्मक प्रभाव छोड़ती नजर नहीं आती। इनको आप वैचारिक मतभेद या अभिव्यक्ति से मत जोड़िए क्योंकि पढ़-पढ़ कर वृद्ध होते छात्रों के पास घाघपने के अलावा इस समाज को देने के लिए कुछ नहीं होता। पहले तीन साल के अपरिपक्व छात्र इनके विचारों को रॉड लेकर, पत्थर फेंक कर, बलात्कार करके, दोस्तों को गायब करा कर, जान से मारकर अंजाम तक पहुँचाते हैं।

आप भी इनके पैदल सिपाही है। लिंकबाजी बंद कीजिए और ऐसी घिनौनी छात्र राजनीति के बायप्रोडक्ट मत बनिए। आज से पाँच साल बाद सिवाय पछताने या हारी हुई हँसी के अलावा आपके चेहरे पर और कोई भी भाव नहीं होगा।

The article has been reproduced from author’s blog with permission.

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Ajeet Bharti

Author is an avid blogger who prefers to write on social and political issues. He is the author of best selling Hindi ‘bachelor satire’ Bakar Puran. He has just delivered his latest Hindi novel named 'Ghar Wapasi'. Follow him on Twitter @ajeetbharti