बौद्ध और वैदिक परंपरा का पारस्परिक संबंध
प्रस्तावना तथा भूमिका :
भारतवर्ष एक ऐसी भूमि रही है जिसने सदियों से कई महान विचारों तथा महान परम्पराओं को जन्म दिया है | इस भूमि पर महावीर, बुद्ध, गुरुनानक, तथा गांधी जैसे कई महान विचारकों ने जन्म लिया है जिनके विचारों के कई अनुयायी आज भी दुनिया भर में फैले हुए हैं | भारत सदियों से ज्ञान का भंडार रहा है तथा यहाँ हर प्रकार की विचारधारा, परंपरा तथा ज्ञान का स्वागत किया गया है | यहाँ कई भाषाएँ , लिपियाँ, ज्ञान की पुस्तकें तथा कई मतों के लोग एक साथ सदियों से शांतिपूर्ण ढंग से रहते हुए आये हैं | चूँकि समाज व्यक्तियों द्वारा ही बना होता है तो कई बार कुछ बदलाव समाज में स्वतः ही होते रहे हैं | इसी तरह का एक सामाजिक जागरण का कार्य बुद्ध ने किया था | बुद्ध जो एक क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे, उन्होंने जब पहली बार दुःख देखा तो सुख की तलाश शुरू कर दी | तथा उनके गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान तथा भारत के प्राचीन वेदों और उपनिषदों के ज्ञान को आधार बनाते हुए उन्होंने सुख का रास्ता अहिंसा , प्रेम और अध्यात्म द्वारा प्राप्त किया तथा वही अपने अनुयायियों और शिष्यों को भी सिखाने का प्रयास किया | कई लोगों को यह रास्ता अच्छा लगा तथा उन्होंने भी इस रास्ते से सुख को प्राप्त करने के कई प्रयास किये | दुसरे कई लोगों को दूसरे रास्ते अच्छे लगे , उन्होंने वह अपनाये तथा कुछ लोगों ने बुद्ध का रास्ता तथा बाकी दुनिया का रास्ता दोनों को अपनाया | इन सभी में कहीं भी कोई मतभेद या मनभेद नहीं था तथा बुद्ध और उनके अनुयायी, तथा जो उनके अनुयायी नहीं थे, यह सभी एक दुसरे के साथ मिलकर रहते थे तथा एक दुसरे का सम्मान करते थे | जीवनयापन का तरीका सभी का उपनिषद और वैदिक मूल्यों पर आधारित था तथा सभी भारतीय संस्कृति जो सदियों से चली आ रही थी उसी का पालन करते थे | स्वयं बुद्ध भी अपने अनुयायियों को उपनिषदों से मिले हुए ज्ञान की भी शिक्षा दिया करते थे | तथा मलय पुस्तक “हिकायत सेरी रामा” और जातक कथाओं में यह उल्लेख है की गौतम बुद्ध ने स्वयं यह कहा था के वो श्री राम के ही अवतार हैं | अतः पूरा समाज एक साथ मिलजुल कर रहता था तथा प्राचीन वैदिक विचार ही संस्कृति का आधार थे | बुद्ध के विचारों पर चलने वाले कम ही लोग थे , क्योंकि कठिन जीवन कम ही लोग जी पाते थे , इनकी जनसँख्या तब बढ़ना शुरू हुई जब मौर्या साम्राज्य के सम्राट अशोक ने युद्ध के बाद हिंसा से तंग आकर अंत में बौद्ध के सिद्धांतों को अपना लिया तथा सारे साम्राज्य के लोगों को भी उसी को अपनाने को बोल दिया | इसके बाद जिन लोगों पर जबरन इन सिद्धांतो को थोपा गया था तथा वह अलग तरह से जीवन जीना चाहते थे , वह सब शंकराचार्य के समय वापस अपनी मूल व्यवस्था में चले गए तथा इसके लिए भी समाज में कोई युद्ध या लड़ाई नहीं हुई बल्कि शास्त्रार्थ द्वारा शंकराचार्य ने मंडन मिश्र आदि को अपनी बात से सहमत करवाया | इसके बाद फिर कई सालों तक भारत में दोनों ही विचारों के लोग साथ में रहने लगे | देखने वाली बात यह है की बौद्ध विचार को कभी भी सनातन संस्कृति से अलग नहीं माना गया तथा कभी भी ऐसा कुछ नहीं था के बौद्ध अलग धर्म बन गया हो और सनातन अलग, बल्कि यह दोनों ही समाज में एक ही नीव के आधार पर बढ़ रहे थे | बौद्ध अलग तथा हिन्दू धर्म अलग ऐसा पहली बार तब कहा गया जब भीम राव अम्बेडकर ने बुद्ध विचारों को अपनाया | उस समय लोगों ने यह कहना शुरू किया के यह हिन्दू से बौद्ध बन गए , जबकि भीमराव ने भी स्वयं स्वीकार किया है के वो इस विचारधारा के साथ हैं क्योंकि वो उस समय की परिस्थितियों से परेशान हो गए थे और इस्लाम और ईसाइयत नहीं अपनाना चाहते थे |
आज कई लोग नव–बौद्ध आन्दोलन के नाम पर भारत में दलित वर्ग को बाकी वर्गों के खिलाफ भड़का रहे हैं तथा यह बोल रहे हैं के गौतम बुद्ध ने हिन्दू धर्म की कुरीतियों से परेशान होकर हिन्दू धर्म छोड़ा था | बौद्ध जातिप्रथा के खिलाफ थे और ब्राह्मणवाद से तंग आ गए थे आदि कई बाते नव-बौद्ध आन्दोलन वाले फैला रहे हैं | यह बुद्ध का नाम लेकर कई लोगों को हिन्दू धर्म से अलग करके बुद्ध बना रहे हैं तथा बुद्ध के सिद्धांतो को सिखाने की जगह उनके मन में स्वयं के देश, संस्कृति और साहित्य के खिलाफ नफरत का जहर भरा जा रहा है | इसलिए आज यह समझना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि – क्या बुद्ध ने कभी हिन्दू धर्म त्यागा था ? या क्या बुद्ध ने हिन्दू धर्म या सनातन या वैदिक धर्म से परेशान होकर बुद्ध धर्म बनाया था ? तथा यह भी समझना आवश्यक है की यदि ऐसा नहीं था तो नव बौद्ध्वाद आखिर क्या है तथा किसके द्वारा फैलाया जा रहा है ? इन सभी प्रश्नों का जवाब ढूंढने का प्रयास इस शोध-पत्र में किया गया है |
गौतम बुद्ध का इतिहास :
महात्मा बुद्ध का जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पहले कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के घर में हुआ था । इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। इनकी माता का नाम महामाया था तथा पुत्र-जन्म के सात दिन बाद ही माता की मृत्यु हो गयी थी । इनकी मौसी गौतमी ने बालक का लालन-पालन किया । इस बालक के जन्म से महाराज शुद्धोदन की पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हुई थी, इसलिए बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया । गौतम नाम इनके गोत्र के कारण पड़ा । ( गौतम महान सनातन ऋषि थे, जिनके नाम पर यह गोत्र है)
बचपन में बालक की जन्मपत्री देखकर राज ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि बालक बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती राजा बनेगा या सब कुछ छोड़ कर वन में तप करने चला जायेगा तथा तपस्या के उपरांत महान संत बनेगा । संत बनने की बात सुनकर पिता को बहुत चिंता हुई । उन्होंने महल में बालक के आमोद-प्रमोद के लिए सभी इंतजाम कर दिए तथा उसको किसी भी प्रकार के दुःख या ऐसी चीजों से हमेशा दूर रखा जिससे उन्हें कुछ सोचने पर मजबूर होना पड़े । सिद्धार्थ बचपन से ही करुणायुक्त और गंभीर स्वभाव के थे । बड़े होने पर भी उनकी प्रवृत्ति नहीं बदली । तब पिता ने यशोधरा नामक एक खूबसूरत कन्या के साथ उनका विवाह करा दिया । इन्होने एक पुत्र को भी जन्म दिया जिसका नाम राहुल रखा गया । परंतु सभी प्रयत्नों के बाद भी सिद्धार्थ का मन गृहस्थी में नहीं रमा । एक दिन वह भ्रमण के लिए निकले, रास्ते में रोगी वृद्ध और मृतक को देखा तो जीवन की सच्चाई का पता चला । क्या मनुष्य की यही गति है, यह सोचकर वे बेचैन हो उठे । उन्होंने सोचा कि एक न एक दिन सभी को रोग आना है, सभी को वृद्ध होना है तथा सभी को मृत्यु आना है तो फिर यह सब धन, दौलत किस काम की है | उन्होंने सोचा यदि जीवन दुःख है तो सुख की तलाश करनी चाहिए | फिर एक रात्रिकाल में जब महल में सभी सो रहे थे तब सिद्धार्थ चुपके से उठे और पत्नी एव बच्चों को सोता छोड़ वन की ओर चल दिए। वहां कठोर तप करते हुए उन्होंने बोधि अर्थात ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति की | बाद में अपने व्याख्यानों में उन्होंने कहा कि संसार दु:खों से भरा हुआ है । दु:ख का कारण इच्छा या तृष्णा है । इच्छाओं का त्याग कर देने से मनुष्य दु:खों से छूट जाता है । उन्होंने लोगों को बताया कि सम्यक-दृष्टि, सम्यक- भाव, सम्यक- भाषण, सम्यक-व्यवहार, सम्यक निर्वाह, सत्य-पालन, सत्य-विचार और सत्य ध्यान से मनुष्य की तृष्णा मिट जाती है और वह सुखी रहता है | अपने पूरे जीवनकाल में इन्होने इसी तर्ज पर कई उपदेश दिए तथा अंत में उनका महानिर्वाण कुशीनगर में हुआ |
इस पूरे घटनाक्रम में कहीं भी जाती प्रथा या वर्ण व्यवस्था का उल्लेख नहीं है | बल्कि यह जरुर सत्य है के सिद्धार्थ के पिता ने उनके सामने कोई भी बुराई या दुःख की बात आने ही नहीं दी, तथा बुद्ध ने भ्रमण के दौरान रोगी , वृद्ध एवं मृत व्यक्तियों को देख कर अध्यात्म का रास्ता चुना था | इससे यह बात सिद्ध होती है के बुद्ध ने हिन्दू धर्म या सनातन संस्कृति के कारण या वर्ण व्यवस्था या जाती प्रथा के कारण अध्यात्म का रास्ता नहीं चुना था ना ही एक धर्म से दूसरा धर्म बदला था, यह गलत तथ्य हैं जो विदेशी लेखकों जैसे शेल्डन पोलक इत्यादि द्वारा फैलाये गए हैं | बल्कि इसके उलट बुद्ध ने तो स्वयं अपने आप को राम का अवतार कहा है (सन्दर्भ: जातक)[1] | तथा कई उपनिषदों के ज्ञान को उन्होंने अपने शिष्यों को दिया है | इसका सबूत है उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान जिनमे से कई बाते उपनिषदों से सीधे मेल खाती हैं | गौतम बुद्ध खुद वैदिक शिक्षकों से पढ़े हुए थे[2] जिनमे “अरादा कलामा” तथा “उद्रका रामापुत्रा” मुख्य थे जिन्होंने गौतम बुद्ध को शून्यता तथा ब्रह्म के पाठ पढाये थे|[3] इन्ही सिद्धांतो को आगे समझने के लिए गौतम बुद्ध ने तप किया तथा अध्यात्म को और गहराई में जाना | अतः आज के युग में नव-बौद्ध लेखको तथा पश्चिमी लेखको द्वारा फैलाया जा रहा भ्रम कि बुद्ध हिन्दू विरोधी तथा वर्ण व्यवस्था विरोधी थे यह पूरी तरह गलत तथा निराधार है | यह इन नव-बोद्ध तथा छदम अम्बेडकरवादी लेखको के मन की कोरी कल्पना है जिसे इन्होने स्वयं अपने अल्पज्ञान तथा शेल्डन पोलक जैसे पश्चिमी लेखको के प्रभाव में गढ़ा है |
नव-बौद्ध तथा छदम अम्बेडकरवादी आन्दोलन :
आज भारत में तथा कई देशों में नव-बौद्ध नामक एक भ्रामक आन्दोलन चल रहा है | इसका प्रचार प्रसार करने वालों का निशाना पिछड़े तथा दलित वर्ग के लोग होते हैं | इन्हें पैसे तथा दूसरे लालच देकर बौद्ध बनाया जाता है तथा इसके लिए शर्त यह होती है कि हिन्दू धर्म ( प्राचीन सनातन या वैदिक धर्म ) तथा संस्कृति को पूर्ण रूप से त्यागना होगा | यही नहीं इनके मन में प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति के प्रति नफरत का जहर भरा जाता है | इसके लिए हिन्दू धर्म (वैदिक) को बदनाम करने का पूरा साहित्य तैयार किया गया है जिसमे कभी शम्भूक की झूठी कथा सुनाई जाती है तो कभी महिषासुर की | इन सब कथाओं को सुनाने और बनाने का मकसद है वैदिक धर्म को शूद्र विरोधी बताना | यह लोग सभी राक्षसों को शूद्र बताकर तथा भगवानो को आर्य तथा ऊँची जाति का बताकर समाज में वैमनस्य फैलाते हैं तथा इसी आधार पर फिर दलितों से हिन्दू धर्म को छुडवा देते हैं | आश्चर्य की बात यह है के दक्षिण भारत में यही कहानियां सुनाकर राक्षसों को द्रविड़ बताते हैं | इन्होने महिलाओं को भी अपनी ओर आकर्षित करने तथा वैदिक संस्कृति से अलग करने के लिए महाभारत में द्रोपदी तथा रामायण में सीता आदि की कथाओं को फेमिनिस्म का रूप देकर इस तरह से लिखा है जिससे यह लगे कि भारतीय संस्कृति तो महिला विरोधी थी तथा इसे त्यागकर ही मुक्ति पायी जा सकती है | इस तरह के कई झूठ तथा प्रपंच यह लोग फैला रहे हैं |[4] राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक ब्रेकिंग इंडिया में लिखते हैं कि इस तरह के आन्दोलनों के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ है जो नहीं चाहते कि भारत तरक्की करे तथा उनके स्तर पर आकर खड़ा हो जाए अतः वह एन.जी.ओ., शिक्षा तथा मीडिया के माध्यम से समाज को तोड़ने के लिए इस तरह के आन्दोलनों को हवा दे रहे हैं | इसी तरह के कई अलगाववादी आन्दोलन सीरिया, लीबिया, मिस्त्र, इराक, आदि में भी चले थे जिनका नतीजा यह देश अब तक भुगत रहे हैं | महाशक्ति सोवियत रूस भी अलगाववादी आन्दोलनों से ही टुकड़े टुकड़े हो गया था | भारत में भी नव-बौद्ध के नाम से दलित वर्ग को अपने ही समाज के खिलाफ भ्रामक साहित्य बाँट कर भड़काया जा रहा है | इसकी कई वेबसाइट तथा फेसबुक पेज आदि इन्टरनेट पर भरे पढ़े हैं |
शेल्डन पोलक तथा भ्रामक साहित्य:
शेल्डन पोलक पश्चिम में इंडोलोजी के बहुत बड़े विद्वान माने जाते हैं | इन्होने कई किताबे और लेख भारतीय संस्कृति और ग्रंथों के विषय में लिखे हैं | यह भारत के विषय में कई जगह पर व्याख्यान इत्यादि भी करते हैं | इन्हें दुनिया भर मे भारतीय विषयों का बहुत बड़ा जानकार माना जाता है | पर अफसोस की बात यह है कि इन्होने ही वह भ्रामक साहित्य लिखा है , जिसे कई अलगाववादी आज भारत में प्रयोग करते हैं तथा इन्होने अपने पश्चिम के नजरिये से भारत को देखने के प्रयास में कई तरह के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया हैं |[5] पश्चिम में बड़े पद पर होने के कारण बहुत कम लोग इनके लेखन पर सवाल उठा पाते हैं, इसका इन्हें भरपूर फायदा मिला है | इन्होने कई ऐसी बाते भारतीय साहित्य के विषय में लिख दी हैं जिनसे समाज में विघटन की स्थिति पैदा होने लगी है तथा हीन भावना पैदा हो रही है | इन्ही में से कुछ तर्कों का विश्लेषण इस शोधपत्र में किया गया है | इसके कुछ तर्कों के उदाहरण निम्नलिखित हैं | यह कहते हैं कि :
- बुद्ध ने वैदिक धर्म से परेशान होकर अलग धर्म बनाया था |
- जाती प्रथा से तंग आकर बुद्ध ने वैदिक धर्म छोड़ा था तथा उनकी पूरी लडाई वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थी |
- संस्कृत भाषा पर सिर्फ ब्राह्मणों का कब्ज़ा था | अतः बुद्ध ने पाली में साहित्य लिखा | बाद में विदेशियों (हुण-कुषाण) के आने से और बौद्ध धर्म के आने के बाद लेखन की शुरुआत हुई |[6]
- संस्कृत तथा वैदिक धर्म में पहले सिर्फ कर्मकांड थे इसमें ज्ञान वर्धक चीजे जैसे काव्य, नाटक आदि बौद्धों के संस्कृत जानने के बाद में जुड़ी |
- रामायण बुद्ध के बाद “दशरथ जातक” से देख कर लिखी गयी |
- बुद्ध से पहले वैदिक धर्म सामाजिक बंधनो पर आधारित था | इसके साहित्य में सिर्फ यज्ञ करवाना आदि था |
पहले तर्क पर चूँकि ऊपर इसी शोधपत्र में काफी कुछ लिखा जा चूका है अतः मै कुछ और विद्वानों के उदाहरण देना चाहूँगा | आनंद कुमारस्वामी अपनी पुस्तक “हिंदूइस्म एंड बुद्धिज़्म” में लिखते हैं कि :
“जो ऊपरी तौर पर किताबी ज्ञान के आधार पर बौद्ध सिद्धांत को पढता है | वह यह बोल सकता है कि ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद दो अलग अलग धर्म हैं मगर जिसने बुद्ध सिद्धांत तथा हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया है वो कभी यह नहीं बोल सकता कि यह दोनों अलग अलग हैं | बुद्ध का अधिकतर ज्ञान तथा प्रवचन ब्राह्मणों तथा उनके छात्रों ने ही सुना था | मगर यह कभी भी “जाति” के विरुद्ध या सामाजिक सुधार के लिए या आन्दोलन के रूप में नहीं था | यह वैदिक धर्म के विरुद्ध नहीं था बल्कि असल में यह वैदिक धर्म के ही खो रहे मूल्यों को पुनःस्थापित करने का एक प्रयास था |”[7]
दूसरे तर्क पर राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत” में लिखते हैं कि –
“बुद्ध धर्म वर्ण/ जाति के खिलाफ एक आन्दोलन था, ऐसा कुछ भी बुद्ध के असली पौराणिक साहित्य में नहीं मिलता बल्कि बुद्ध ने दुःख को दूर करने के लिए जो ४ आर्य सत्य तथा ८ आर्य अष्टांग मार्ग दिए हैं , उनमे कहीं भी जाती प्रथा या वर्ण व्यवस्था की चर्चा नहीं है | भारत के इतिहास में भी ऐसी कोई चर्चा नहीं है कि किसी जाति ने बुद्ध धर्म को अपनाकर अपना वर्ण या जाति छोड़ दी हो | ना ही ऐसा कुछ कही है के बुद्ध ने जाति/वर्ण छोड़ने का कहा है, ना ही ब्राह्मण जाति के त्याग की बात कहीं मिलती हैं | ऐसा कुछ भी ना तो भारत के प्राचीन साहित्य और इतिहास में है तथा ना ही किसी चीनी यात्री ने किसी सामाजिक/ जातिगत आधारित आन्दोलन के विषय में ऐंसा कुछ लिखा है |”[8]
तीसरे तर्क के विषय में राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत” लिखते हैं के –
“बुद्ध से २००० साल पहले “इंडस सरस्वती सिविलाइज़ेशन” थी, जिनकी लिपि भी थी, तथा कई सारा साहित्य इनके समय में लिखा गया है | अतः यह बात बिलकुल निरर्थक है कि बौद्ध धर्म के आने के बाद भारत में लेखन की शुरुआत हुई |”[9]
इसमें एक तथ्यपूर्ण बाद यह भी है के यदि “पाली भाषा का इतिहास पढ़ा जाए तो पता चलता है यह बुद्ध के काफी बाद में विकसित हुई है | अतः बुद्ध के प्रवचन पाली में नहीं थे | बल्कि बाद में लोगों ने उन्हें पाली में लिखा है | कई लोगों का मत यह भी है के बुद्ध के काफी प्रवचन संस्कृत में ही थे |
चौथा तर्क जिसमे पोलक कहते हैं – “संस्कृत तथा वैदिक धर्म में पहले सिर्फ कर्मकांड थे इसमें अन्य ज्ञान वर्धक चीजे जैसे काव्य, नाटक आदि बौद्धों के संस्कृत को अपनाने और उदार बनाने के बाद में जुड़े”|[10] यह बात भी तथ्यहीन दिखाई पढ़ती है क्योंकि वेदों में प्राचीन समय से काव्य का जिक्र होता आया है | इसके कुछ उदाहरण हैं –
“अथर्व वेद में काव्य के विषय में लिखा गया है कि काव्य वो है जो कभी पुराना नही होता , जो कभी खत्म नही होता , उसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं | कोई इसे कविता कह सकता है तो कोई बाहरी रहस्यों से जोड़ सकता है |”[11]
इसी तरह प्रसिद्द जर्मन शब्दकोष “वाटरबच(१८५५-१८७५)” में इक्यावन (51) बार सिर्फ वेदों के सन्दर्भ में “काव्य” शब्द का प्रयोग है | इसमें स्तुति, कला , प्रेरणा इत्यादि के काव्यों का वर्णन है |[12] राजशेखर ने भी नवी शताब्दी में “काव्यमीमांसा” में काव्य का वर्णन किया है | इसी तरह के. कृष्णामूर्ति ने “भंडारकर ओरिएण्टल शोध संस्थान” के वॉल्यूम ७२/७३, नं १/४ , अमृतमहोत्सव (१९१७-९२), पृष्ठ संख्या ७१-७७ में छपे उनके लेख “पोएटिक आर्टिस्ट्री इन वैदिक लिटरेचर” में यह जिक्र किया है कि किस तरह वेदों में अपार श्रद्धा होते हुए भारत में इन्हें काव्यों की तरह भी लिया गया है |
ऐसे ही यजुर्वेद (३०.६) में नायक, नृत्य तथा संगीत का वर्णन है और ऋग्वेद में ‘नृत्यु’ शब्द का प्रयोग किय गया है , जिसका अर्थ है महिला नर्तकी |[13] इस तरह के कई उदाहरण वैदिक साहित्य में भरे पढ़े हैं जिन्हें ना सिर्फ भारतीय बल्कि कई पश्चिमी विद्वानों ने भी कई जगह उल्लेखित किया है | अतः पोलक का चौथा तर्क जो यह कहता है के बुद्ध के आगमन के पूर्व संस्कृत तथा वैदिक संस्कृति में कर्मकांड के सिवा कुछ नहीं था यह उचित नहीं लगता |
पांचवा तर्क जिसमें पोलक एवं उनके अनुयायी यह कहते हैं के रामायण ब्राह्मणों द्वारा बुद्ध के बाद जातक की कथा को पढ़कर गढ़ी गयी है तथा जातक कथाएं भारत में पहला लिखित साहित्य है |[14] इस तर्क को कई जगह पर कई विद्वानों ने चुनौती दी है | उन्ही के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं –
पश्चिमी विद्वान रोबर्ट गोल्डमेन जो खुद पोलक के साथी रहे हैं, वह मानते हैं के जातक कथाओं में वाल्मीकि रामायण से सन्दर्भ लिया गया है क्योंकि जातक वाल्मीकि रामायण के काफी बाद लिखी गयी है | गोल्डमेन यह भी कहते हैं के पोलक ने उनके तर्क – “रामायण जातक के बाद लिखी गयी है” को “दशरथ जातक” का प्रयोग करके लिखा है , इसका सन्दर्भ उन्होंने वेबर के उन्नीसवी शताब्दी के “दशरथ जातक” पर किये गये विश्लेषण से उठाया है तथा वेबर का यह विश्लेषण तथा निष्कर्ष अब पश्चिम में नकारा जा चूका है तथा गलत सबित हो चूका है | अतः पोलक का भी यह कहना कि रामायण को ब्राह्मणों ने जातक से उठाया और वैदिक धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयोग किया यह गलत प्रतीत होता है | [15]
छठे तर्क में पोलक कहता है कि वैदिक धर्म बुद्ध से पहले सिर्फ यज्ञ आदि पर आधारित था तथा इसके साहित्य में सामाजिक रूडीवादिता के सिवा कुछ नहीं था | यह तथ्य भी एकदम बचकाना सा मालूम पढता है , क्योंकि वैदिक धर्म के साहित्य में ना सिर्फ यज्ञ बल्कि इतिहास, नाट्य – शास्त्र, योग, तंत्र , कला , संगीत आदि बहुत कुछ प्रमाणिक रूप से है तथा ऐसी कई और चीजों के उदाहरण वैदिक साहित्य तथा वैदिक काल के समय के मिलते हैं जो यज्ञ के अलावा संस्कृति, सभ्यता, प्रकृति दर्शन, शास्त्र आदि पर आधारित हैं | वेदों को लिखने वालों में भी गार्गी जैसी विदुषी महिलाएं तथा अनेको भिन्न भिन्न कुल के व्यक्तियों का हाथ रहा है | अतः यह कहना के बुद्ध से पहले यहाँ सिर्फ यज्ञ होते थे एवं यह ब्राह्मणों के कब्जे में था | यह पुर्णतः गलत है , क्योंकि रामायण के संदर्भ में यह सिद्ध हो चूका है कि वह बुद्ध के काल से पहले लिखी हुई है , उसे वाल्मीकि ने लिखा था जो जन्म से शुद्र वर्ण के थे | इसी तरह के कई उदाहरण वैदिक संस्कृति में मिलते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि सामाजिक रूढिवादिता का इस सभ्यता में कोई स्थान नहीं था बल्कि सामाजिक समरसता और एकता प्रमुख रूप से इस काल में देखी गयी है |
उपसंहार :
इस शोधपत्र का मूल उद्देश्य किसी पश्चिमी लेखक का पूर्व पक्ष करना या किसी की कमी निकालना नहीं था बल्कि इस शोध का मूल उद्देश्य उस सोच को समझना था जिसके आधार पर भारतीय समाज आज विघटन की ओर बढ़ता जा रहा है | कुछ पश्चिमी लेखको की नासमझी, अल्पज्ञान, या पक्षपाती रवैये के कारण भारत के इतिहास तथा साहित्य को कई सालों से पश्चिम में तथा भारतीय सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में उपेक्षा का सामना करना पड़ा है तथा इसी कारण आज कई नव-बौद्ध जैसे आन्दोलन देश में खड़े हो गए हैं | कुछ आन्दोलनों के पीछे विदेशी फंडिंग भी एक कारण है |[16] मगर बहुत सारे जन आक्रोश तथा आन्दोलनों के पीछे भारतीयों का स्वयं का अपने विषय में ना जानना एक बहुत बड़ा कारण नजर आता है | भारत में अंग्रेजों के राज के बाद से एक प्रथा सी चल गयी है कि जो भी पश्चिम से आता है उसे ब्रह्म वाक्य लिया जाता है | यहाँ तक कि स्वयं के विषय में जानने के लिए भी कई पढ़े लिखे बुद्धिजीवी भारतीय, पश्चिमी साहित्य या पश्चिमी प्रमाणपत्र की ओर देखते हैं | जिसमे कई बार भ्रामक साहित्य या गलत इतिहास का शिकार होकर भारतीय हीन भावना के शिकार हो जाते हैं | अतः इस शोध पत्र में ऐसे ही एक विषय को लेकर चर्चा की गयी है तथा उसपर दिए गए पश्चिमी विद्वानों के तर्कों का विश्लेषण किया गया है | इस शोधपत्र में कई सारे तर्कों तथा विश्लेषणों के आधार पर यह बात प्रमाणिकता से कही जा सकती है कि बौद्ध मत कभी वैदिक धर्म से अलग नहीं रहा बल्कि यह दोनों एक ही हैं | कालांतर में कई विदेशी लेखकों ने इसे गलत रूप में समझने के कारण इन्हें अलग अलग पंथ समझ लिया था , जो अब धीरे धीरे गलत साबित हो रहा है | चूँकि भारत कई साल गुलाम रहा अतः भारत की ओर से इन तर्कों का खंडन पीछे कुछ सालों में नहीं हो सका , पर अब कई लोग मुखरता से सत्य को प्रमाणित कर रहे हैं तथा दुनिया भर में उनकी बात को सुना जा रहा है | इस शोध पत्र के अंत में यही कहा जा सकता है कि विचार बुद्ध के हों या वैदिक, यदि उन्हें सही तरह से समझा जाए तथा जिस देश और जिस जगह से यह विचार उपजे हैं वहाँ के लोगों तथा साहित्य से प्रमाण निकाले जाए तो यह दो विभिन्न धारा नहीं बल्कि एक ही प्रतीत होती हैं |
अन्य सन्दर्भ सूचि :
- जातक
- त्रिपिटक
- बैटल फॉर संस्कृत (राजीव मल्होत्रा)
- ब्लॉग कोएनार्ड एल्स्त
- शेल्डन पोलक (एक्सियल सिविलाईसेशन एंड वर्ल्ड हिस्ट्री)
- ब्रेकिंग इंडिया (राजीव मल्होत्रा)
- पाली साहित्य का इतिहास
- वाल्मीकि रामायण
References
[1] Jataka
[2] Alexander Wynne (2007). The Origin of Buddhist Meditation. Routledge. pp. 8–23. ISBN 978-1-134-09740-1.
[3] Hajime Nakamura (2000). Gotama Buddha: A Biography Based on the Most Reliable Texts. Kosei. pp. 127–129. ISBN 978-4-333-01893-2.
[4] http://koenraadelst.bharatvani.org/books/wiah/ch11.htm
[5] – Page 400-411 – Axial Civilisations and World History
[6] Pollock 2006:52.
[7] Ananda Coomaraswamy. Hinduism and Buddhism
[8] Rajiv Malhotra.The Battle For Sanskrit.pp. 128-129.
[9] Rajiv Malhotra.The Battle For Sanskrit.pp. 387-388.
[10] Pollock 2006:75-76.
[11] Atharva Veda: 10.8.32
[12] Sanskrit Worterbuch (Sanskrit German Dictionary of 7 volumes) authored by Bohtlingk and Roth(1855-1875, published from St. Petersburg)
[13] Rajiv Malhotra.The Battle For Sanskrit.pp. 416-417.
[14] Pollock 1986:37-38.
[15] Goldman 1984:32
[16] Rajiv Malhotra.Breaking India.