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तंत्र का रहस्य – 1: हिन्दू धर्म में तंत्र का स्थान

तंत्र का रहस्य – 1: हिन्दू धर्म में तंत्र का स्थान

एक आम भारतीय तंत्र शब्द सुनकर शायद गांजा फूंकते हुए,  हाथ में एक खोपड़ी पकडे, शमशान घाट में बैठे हुए कुछ अरुचिकर अनुष्ठान करते हुए खून से लथपथ आंखों वाला एक अव्यवस्थित व्यक्ति की कल्पना करेगा। विदेशी और अंग्रेजी शिक्षित अधिक कुलीन पश्चिमीकृत शहर के लोग तुरंत सेक्स और अवसाद के बारे में सोचेंगे। यदि आप इंटरनेट पर ‘तंत्र’ शब्द गूगल करेंगे, तो आप विभिन्न यौन स्थितियों में “पूर्वी दुनिया” के लोगों की बहुत सारी छवियों को देखेंगे। तंत्र का सभी प्रकार के अनैतिक, दुष्ट और अजीब प्रकार के नाकारात्मक जुडाव हिंदूओं के साथ-साथ गैर-हिंदूओं के मन-मस्तिष्क में घर कर गया और तंत्र को लोग काला-जादू, पशु बलि और अन्य आपत्तिजनक प्रथाओं से जोड़कर देखने लगे हैं।

इसके अलावा, “तंत्र सेक्स” और “तंत्र मसाज़” का एक कुटीर उद्योग पश्चिमी देशों, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में में विकसित हुआ है जो तंत्र को सॉफ्ट पोर्नोग्राफी की तरह प्रस्तुत करने की कोशिश करता है और इस बारे में जानबूझकर गलत प्रचार के द्वारा अपने आसपास उत्पादों और सेवाओं को बेचता है। तंत्र की विकृत परिभाषा विश्व स्तर पर फैली हुई है| उदहारण के लिए हमारे पास एक ऑस्ट्रेलियाई ‘स्कूल ऑफ़ तंत्र (लव वर्क्स) भी है, जिसके पास सर्वाधिक मांग वाला कार्यक्रम “मेलबोर्न कपल्स कोचिंग” है, जो पुरुषों के लिए मैथुन में लम्बी अवधि तक टिकने और महिलाओं के लिए अधिक यौन सुख पाने का “तांत्रिक कौशल” सिखाने का दावा करता है!

यह बहुत गंभीर एवं विचारनीय विषय है। तंत्र के बारे में इन धारणाओं में से प्रायः निश्चित रूप से गलत हैं और हिंदू धर्म को हीन दिखाते हैं। निबंधों की इस श्रृंखला में  मैं तंत्र के बारे में चर्चा करूँगा कि यह क्या है? किसको तंत्र नहीं कह सकते? वैदिक धर्मशास्त्र और तत्वमीमांसा से इसका संबंध, तंत्र के बारे में विभिन्न मिथक और गलत धारणाएं और आखिरकार आधुनिक हिंदू धर्म में इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा करूँगा। मैं दिखाऊंगा कि कैसे तंत्र एक आम हिंदू के जीवन के लगभग सभी पहलुओं में जाने-अनजाने इस प्रकार सम्मिलित है जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता।

गूढ़ तांत्रिक अभ्यास

कुछ गूढ़ तांत्रिक साधनाएं जैसे पञ्च-मकार (मत्स्य,मांस,मदिरा(शराब),मुद्रा,मैथुन(समागम)) या षड-कर्म (छह “जादुई” अनुष्ठान) मुख्यधारा के हिंदू धर्म के अनुसार रहस्यमय या इससे विलग दिखाई देते हैं। इन्हें कुछ यहूदी-ईसाई पृष्ठभूमि वाले पश्चिमी इंडोलॉजिस्टों ने बाधा-चढ़ा कर और अजीब ढंग से पेश किया है क्योंकि वे धर्म को प्रामाणिकता के चश्मे से देखते हैं।

हालांकि तंत्र मांस और मैथुन से कहीं अधिक बढ़कर है – ये वास्तव में विशेष परिस्थितियों में कुछ चिकित्सकों द्वारा अभ्यास किया जाने वाला दुर्लभ और असाधारण रूप हैं। प्रख्यात तंत्रज्ञ श्री प्रबोध चन्द्र बागची [1] के अनुसार, ” इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ ग्रंथों में क्रियाएं हैं जिसे काला जादू कहा जा सकता है, और कुछ पाठ अश्लीलता से भरे भी हैं; लेकिन ये तांत्रिक साहित्य का मुख्य हिस्सा नहीं हैं ”।

अक्सर इन गूढ़ क्रियाओं पर अधिक ध्यान देने से मूल-तत्त्व पीछे छूट जाता है। आत्म-शुद्धि और आध्यात्मिक विकास पर पूर्ण ध्यान केन्द्रित करना तंत्र शास्त्र का अभिन्न अंग है, जिसमें सूक्ष्म तत्वमीमांसा और उन्नत योगाभ्यास शामिल हैं। इस संबंध में, प्रख्यात जर्मन इंडोलॉजिस्ट जॉर्ज फ्यूरस्टीन का कहना है: “हिंदू धर्म की तांत्रिक विरासत पर शोध और प्रकाशनों की कमी के कारण हाल के वर्षों में भ्रामक किन्तु चर्चित पुस्तकों ने इसका स्थान ले लिया है जिसे मैं नव-तांत्रिकता(Neo-Tantrism) कहता हूँ। उनका न्यून्तावादी दृष्टिकोण इतने चरम है कि इस विषय के एक नवसिखिये को उनके ग्रंथों में तांत्रिक विरासत के बारे में बमुश्किल ही कुछ मिल पायेगा। सबसे आम विकृति तांत्रिक योग को एक अनुष्ठान या पवित्र सेक्स के विषयमात्र के रूप में प्रस्तुत करना है। आज लोगों के विचार में, तंत्र सेक्स के सामान हो गया है। पर यह सच्चाई से कोसों दूर है!”[2]

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, और बहुत हद तक हम हिंदू खुद इसके लीयते जिम्मेदार हैं, क्योंकि हमने इस विकृति को हमारी अज्ञानता और अरुचि के कारण जारी रखने की अनुमति दे रखी है। फिर कई स्वघोषित हिंदू गुरु भी हैं जो तंत्र के इस विकृत संस्करण को फैला रहे हैं। रही-सही कसर बॉलीवुड ने पूरी कर दी है जिसमे तांत्रिक गुरुओं को भ्रष्टाचारी या एक गुफा में रहने वाले तांत्रिक गुरु जैसा रूढ़िवादी चित्रण करता है, जो सम्मोहन और जादुई कौशल से भविष्यवाणी कर सकता है; दुख की बात है कि बॉलीवुड ने फिल्मों से प्यार करने वाले भारतीयों की तीन पीढ़ियों के दिमाग में जहर भर दिया है।

हिंदू धर्म का एक अभिन्न अंग

संरचनात्मक स्तर पर तंत्र हिंदू धर्म का एक अभिन्न अंग है जैसे हाइड्रोजन परमाणु पानी के अणु (H2O) का एक अभिन्न अंग है। तंत्र “वर्तमान समय में भारत में पूजा की हर प्रणाली में व्याप्त है, जिसमें वैष्णव भी शामिल हैं” [3]; इसे कोई हिंदू धर्म से अलग नहीं कर सकता, वैसे ही जैसे कोई भोजन से स्वाद को अलग नहीं किया जा सकता।

तंत्र का मूल दर्शन वैदिक विश्वदृष्टि के अनुरूप है और जो भी अंतर मौजूद है वह बहुत सूक्ष्म और अति विशिष्ट दार्शनिक बिंदुओं को लेकर है। स्वामी समर्पणानंद के शब्दों में [४]:

तंत्र वेदों या किसी हिंदू दर्शन की तरह एकात्मक प्रणाली नहीं है। यह प्रागैतिहासिक काल से ही हिंदुओं की व्यवहार और विचारों का एक संचय रहा है। इसका जन्म वेदों में निहित है; इसका विकास उपनिषदों, इतिहास, पुराणों, और स्मृतियों के माध्यम से हुआ; और बौद्ध धर्म, विभिन्न लघु हिंदू संप्रदायों और विदेशी प्रभावों द्वारा भी इसका सतत उत्थान ही होता रहा है। तंत्र द्वारा इस प्रकार अर्जित सामर्थ्य और लचीलेपन के कारण इसे भारत के हर घर और मंदिर में प्रवेश मिला है और इसने हर उस प्रदेश में, जहां भारतीय विचार पहुंचे, वैभवशाली स्थान प्राप्त किया । भारत और पश्चिम में हिंदू धर्म के रूप में जो भी आप पाते हैं, वह अनिवार्य रूप से तंत्र ही है जो एक विशेष समुदाय या व्यक्ति की आवश्यकता के अनुरूप ढाला गया है।

यहाँ ध्यान देने योग्य एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पूजा, जो आम घरों और मंदिरों में होने वाली उपासना की विधि है, के मूल और विकास में तंत्र ही है। दूसरी ओर यज्ञ वैदिक तत्वमीमांसा में निहित एक शुद्ध वैदिक निर्माण है। पुराण-पूजा नाम की भी एक पूजा है और पुराणों में स्वयं तंत्र शास्त्रों का बड़ा अंश उधार लिया गया है।

यह स्पष्ट है कि तंत्र को एक अलग श्रेणी में 19 वीं शताब्दी के इंडोलॉजिस्टों द्वारा पेश किया गया था।  क्योंकि वे वेदों से अलग किन्तु तत्त्वमीमांसा का ही एक भाग रहे तंत्र, आगम और यमला जैसे हिंदू (और बौद्ध) साहित्य के विशाल ज्ञान को समझने में असमर्थ थे। 19 वीं शताब्दी तक, हिंदुओं ने कुछ विशेष संप्रदायों की बेहद आपत्तिजनक प्रथाओं या गुह्य (गुप्त) प्रथाओं को छोड़कर तंत्र को कभी भी हिंदू धर्म से अलग नहीं माना। फ्रेंच इंडोलॉजिस्ट एंड्रे पादौक्स के अनुसार, “[तंत्र] इतना व्यापक था कि इसे एक विशिष्ट प्रणाली के रूप में नहीं माना जाता था।” [5]

इसलिए, आज हिंदू धर्म की संरचना आपस में जुड़ी हुई और अविभाज्य डीएनए के दोहरे-हेलिक्स सूत्रों की तरह है:

वैदिक सूत्र का सम्बन्ध उन प्रथाओं और रीति-रिवाजों से है जिनका उद्गम पुरु-भरत के पुरोहित धर्म से हुआ और जो पूरे भारतवर्ष में विविध सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों को स्वयं में आत्मसात करते हुए फैला |[6]

तांत्रिक सूत्र का सम्बन्ध उन प्राचीन प्रथाओं और रीति-रिवाजों से है जो पशुपति-शिव और अखिल भारतीय देवी पंथों के साथ शुद्ध वैदिक विषयों के संलयन से बढ़े थे, जो एक विशाल जनसंख्याँ के बीच एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में कई सहस्राब्दियों से अधिक समय तक फैलते रहे।

वास्तव में, अथर्ववेद को तंत्र का एक अग्रदूत माना जाता है, क्योंकि अथर्ववेद में कई विचार पाए जाते हैं जैसे एकत्व दर्शन, दीक्षा, चक्र, मंत्र-तत्व, और तथाकथित “जादुई” तत्व जैसे वशीकरण, स्तम्भन आदि जिसे बाद में तंत्रों में विस्तृत ढंग से बताया गया है। तांत्रिक ग्रंथों में अक्सर प्राचीन श्रद्धेय गुरुओं जैसे दधीचि, लकुलीश, कच एवं अन्य का उल्लेख मिलता है जिनकी भूमिका इस ज्ञान के प्रसार में मूर्धन्य थी।

तंत्र बनाम वेद

तंत्र और वेद के बीच के संबंध को समझाने के लिए, मैं कंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र से एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ |

सेर्गेई ब्रिन और लॉरेंस पेज ने 1998 में अपने अग्रणी शोध [7] को प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था, “द एनाटॉमी ऑफ़ ए लार्ज-स्केल हाइपरटेक्चुअल वेब सर्च इंजन”, जिसमें उन्होंने बड़े पैमाने पर सर्च इंजन का एक नमूना प्रस्तुत किया, जिसमें हाइपरटेक्स्ट में मौजूद संरचना का वृहत उपयोग किया गया था। यह शोधपत्र इस प्रश्न पर आधारित है कि “बड़े पैमाने पर व्यावहारिक प्रणाली का निर्माण कैसे किया जाय, जो हाइपरटेक्स्ट में मौजूद अतिरिक्त जानकारी का प्रयोग कर सके” और यह भी कि “अनियंत्रित हाइपरटेक्स्ट संग्रह, जिसका प्रयोग कर कोई भी व्यक्ति कुछ भी प्रकाशित कर सकता है, के साथ प्रभावी ढंग से कैसे निपटें | ” इस पेपर को शैक्षणिक जगत में व्यापक रूप से सराहा गया था, और कई पीयर-रिव्यू जर्नल में कई बार उद्धृत और संदर्भित किया गया, और इसे 21 वीं शताब्दी के सबसे अग्रणी शोध पत्रों में से एक माना जाता है। इसने 21 वीं सदी का रूप ही बदल दिया। यह संभव है कि एक औसत व्यक्ति यह समझने की कोशिश कर रहा है कि ब्रिन और पेज किस बारे में बात कर रहे थे और समझ न आने की दशा में अपना सिर पकड़कर बैठ जाय। हालांकि, यह शोध पत्र साधारण शब्दों में लोकप्रिय खोज इंजन गूगल की उत्पत्ति और आंतरिक कामकाज पर चर्चा करता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति गूगल खोज का उपयोग करना सीखना चाहता है, क्या वह ब्रिन और पेज की शोध का अध्ययन करेगा? नहीं, क्योंकि उसे प्रत्येक कार्य का संक्षिप्त विवरण, कुछ उदाहरणों, उपयोगी आरेखों और FAQ शैली के उत्तर और गूगल के अंतर्निहित एल्गोरिथ्म के साथ “कार्य विवरण” गाइड की आवश्यकता है। क्या इसका मतलब यह है कि वह थीसिस बेकार है? बिलकुल नहीं। दोनों समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, जो कि लक्षित दर्शकों पर निर्भर करते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए, हम तंत्र और वेदों के बीच संबंधों की प्रकृति को समझने की कोशिश करेंगे।

वेद ज्ञान का भंडार हैं और उस ज्ञान को संदर्भित करते हैं जो ऋषियों को चेतना की उच्च अवस्था में मिला था और उन्होंने इसे मंत्र-संहिता के रूप में संहिताबद्ध किया। हालांकि, यह ज्ञान दुर्बोध, विशाल और आसानी से सुलभ नहीं है, सिवा उन विशेषज्ञों के जिन्होंने लंबे समय तक व्यापक एवं कठोर प्रशिक्षण लिया है। व्यापक टीकाओं और कार्यविधि के साथ जो तकनीकी ग्रंथ उपलब्ध हैं (ब्राह्मण), वे स्वयं काफी गूढ़, जटिल और विस्तार-उन्मुख हैं और ऐसा भी नहीं है कि कोई एक दिन अचानक इसका उपयोग कर उठकर यज्ञ करना शुरू कर सके। उसे इस विज्ञान में लंबे समय तक प्रशिक्षित होना पड़ेगा। दूसरी ओर, तंत्र शास्त्र है, जिसके माध्यम से ज्ञान का प्रसार होना है। वेदों के सारगर्भित और गूढ़ ज्ञान को सभी के लिए सुलभ बनाने के लिए उन्हें आसानी से समझने योग्य बनाया गया था। वैदिक ग्रंथ अन्य विशेषज्ञों के लिए विशेषज्ञों द्वारा लिखे गए ग्रंथ हैं, जबकि तांत्रिक ग्रंथ विशेषज्ञों और अभ्यासियों द्वारा अन्य अभ्यासियों के लिए लिखे गए ग्रंथ हैं।

एक आध्यात्मिक अभ्यासी के जीवन में तंत्र की वही भूमिका होती है जो ऊपर बताई गई “कार्य विवरण” मार्गदर्शिका का गूगल सर्च सीखने वाले के जीवन में होती है। ऊपर उल्लिखित शोध ब्राह्मण और उपनिषदों के समतुल्य है, जो उन विशेषज्ञों के लिए विशिष्ट दस्तावेज हैं जो ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए तंत्र व्यावहार में आने वाला एक आध्यात्मिक ज्ञान है और आध्यात्मिक उत्थान की ओर उन्मुख करने के लिए इसमें तत्त्व-सिद्धांतों (प्रकृति के मौलिक निर्माण इकाई का विज्ञान) और मंत्र (देवता सामान नाद का विज्ञान) का प्रयोग होता है। विशेष रूप से, तंत्र का अंतर्निहित ढांचा कुछ असमानताओं को छोड़कर मुख्यतः वेदांत और सांख्य पर आधारित है। [8] तंत्र “ब्राह्मण या शिव की परम सत्य एवं जगत में उनकी शक्ति की अभिव्यक्ति के योग की पहचान है।” [9] इसलिए तंत्र वैदिक कर्मकाण्ड(अनुष्ठान) और दर्शन के बीच का सेतु है और कभी-कभी वेदों के एक भाग के रूप में माना जाता है और इसे पांचवा वेद भी कहा जाता है।

सर जॉन वुड्रॉफ़ (उर्फ़ आर्थर एवलॉन) ने अपनी पुस्तक “ शक्ति एंड शाक्त ” में कहा है [10]:

आगम स्वयं दर्शनशास्त्र का ग्रंथ नहीं हैं, हालांकि उनमें जीवन के एक विशेष सिद्धांत का वर्णन है। उन्हें साधना शास्त्र कहना ज्यादा उचित होगा, अर्थात् व्यावहारिक शास्त्र जिसके द्वारा आनंद की प्राप्ति होती है, जो हरेक मानव की खोज है। और जैसा कि स्थायी आनंद ही ईश्वर है, वे सिखाते हैं कि कैसे मनुष्य पूजा और निर्धारित विषयों के अभ्यास से, दैवीय अनुभव प्राप्त कर सकता है। इन्हीं वचनों और प्रथाओं से दर्शन का अविर्भाव हुआ है।

वैदिक और तांत्रिक तत्वमीमांसा के बीच कुछ अन्य समानताएँ नीचे दी गई हैं

कर्मकांड वेद और तंत्र दोनों में एक सामान हैं.

शरीर के साथ मिथ्या संबंध छोड़ने का विचार दर्शन और तंत्र दोनों में है।

राजयोग में शरीर और मन के शुद्धिकरण का वर्णन ऐसे ही तंत्र में भी पाया जाता है।

भक्ति पुराण और तंत्र दोनों का हिस्सा है।

वैदिक और तांत्रिक पूजा के बीच एक मुख्य अंतर मंत्रों के पुन: प्रयोग के संबंध में है। वैदिक शास्त्र में प्रत्येक वांछित परिणाम और प्रत्येक क्रिया में अलग-अलग मंत्र और उनकी विस्तृत प्रक्रियाएं होती हैं। तांत्रिक शास्त्र में, केवल संकल्प को छोड़कर, एक ही मंत्र का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है।[11]

आज, यदि आप घर पर पूजन करना चाहते हैं तो आप आमतौर पर “नित्यकर्म पाठ” का प्रयोग करेंगे, न कि ब्राह्मण या उपनिषदिक पाठ का। इन नित्यकर्म पुस्तकों में विभिन्न कर्मों (नित्य, नैमित्य आदि), विभिन्न पूजन प्रणाली और उससे सम्बंधित मंत्र, और विभिन्न देवताओं के स्तोत्रों के संग्रह का विस्तृत वर्णन मिलेगा। इसमें दर्शन या गूढ़ ज्ञान की एक भी पंक्ति नहीं होगी। अनुष्ठान शुद्धि के चरण, मुद्रा, न्यास आदि में से अधिकांश तांत्रिक ग्रंथों से लिए गए हैं, जबकि कुछ मंत्र वेदों और पुराणों से भी हैं। उदाहरणार्थ, आज बंगाल क्षेत्र से एक विशिष्ट नित्य कर्म पूजा गाइड पायी जाती है जो कई पूर्व गाइडों पर आधारित है जैसे कि 18 वीं शताब्दी के प्राणतोशिनी तंत्र या कृष्णानंद अगमवागीश द्वारा 16 वीं शताब्दी के पूजा उपासना बृहत्-तंत्रसार को। कृष्णानंद ने स्वयं इससे पुराने तांत्रिक ग्रंथों, मंत्रों मञ्जूषा और प्रमुख अनुष्ठानों जैसे कि पंचसार तंत्र और शारदा तिलक तंत्र का प्रयोग किया था।

निष्कर्ष

इस प्रकार हम पाते हैं कि तंत्र हिंदू धर्म का एक अनिवार्य अंग है और हमारे जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छूता है। जबकि वेद ज्ञान और प्रकाश के श्रोत हैं, तंत्र आध्यात्मिक उत्थान के लिए इसकी इच्छा रखने वाले को “ कार्य विवरण ” मार्गदर्शिका प्रदान करते हैं। तंत्र दर्शन एक सर्वव्यापी परम सत्य को स्वीकार करता है और सांख्य दर्शन को प्रस्तुत करता है और इस प्रकार वेदांत और सांख्य के दर्शन को संरक्षित रखता है। हालांकि, वैदिक और तांत्रिक धाराओं के बीच कुछ मूलभूत दार्शनिक और तकनीकी अंतर हैं, जिनमें से कुछ का वर्णन किया गया है। स्वामी समर्पणानंद के शब्दों में [12]

तंत्र ने परम सत्य के साथ-साथ मोक्ष प्राप्त करने में अभ्यासियों के लाभ के लिए कर्म, ज्ञान, भक्ति और योग के समन्वय को सफलतापूर्वक पूरा किया है। हिंदू धर्म की विभिन्न आध्यात्मिक धाराओं का संयोजित फल होने के नाते, इसने अपने क्षेत्र को धर्म से जुड़ी हर उस ज्ञान, जो भारत के किसी भी प्रदेश में पायी जाती हो, को स्वीकार कर स्वयं को विस्तृत किया। बदले में, इसने कई आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि का प्रतिपादन किया जो मानव जाति के लिए फलदायी हैं।

हिंदू धर्म का अभिन्न अंग होने पर भी, तंत्र को गलत समझा और पेश किया जाता है। सर जॉन वुडरॉफ़ ने 1913 में कहा था: “हिंदू शास्त्र के सभी रूपों में, तंत्र सबसे कम ज्ञात और चर्चित है, जिसका कारण इसके विषय-वस्तु का कठिन होना और इसकी शब्दावली और विधि का इसके सीखने वालों तक ही सीमित होना है। “[13]

अपनी पुस्तक “शक्ति एंड शाक्त” में वे तांत्रिक अनुष्ठानों के बारे में कहते हैं: “भारतीय अनुष्ठान कितने प्रकांड हैं, यह वे लोग ही जान सकते हैं जिन्होंने सभी अनुष्ठानों और प्रतीकों के सामान्य सिद्धांतों को समझा है, और इसके भारतीय रूप, उस ज्ञान के साथ जिन सिद्धांतों की यह एक अभिव्यक्ति है, का अध्ययन किया है। जो लोग इसको स्वांग, अंधविश्वास और निरर्थक बताते हैं, वे स्वयं की अक्षमता और अज्ञानता ही प्रदर्शित करते हैं।” [14] यहाँ तार्किक प्रश्न यह उठता है कि अगर तंत्र हिंदू धर्म का इतना अभिन्न अंग है, तो फिर इस बारे में इतनी अज्ञानता क्यों है? ज्यादातर लोग तंत्र को हाशिये की प्रथाओं से क्यों जोड़ते हैं? यदि तंत्र हिंदू धर्म का एक प्रमुख घटक है, तो हम अपनी विरासत को पुनः प्राप्त करने के लिए क्या कर सकते हैं और इसे तंत्र के विकृत चित्रण, जो खासकर पश्चिम में है, से अलग कैसे कर सकते हैं?

यही कुछ सवाल हैं जिसका उत्तर हम श्रृंखला के बाकी हिस्सों में खोजने का प्रयास करेंगे। हम तंत्र के वर्गीकरण के बारे में बात करेंगे। हम पञ्च-मकार और षट्-कर्म के अभ्यास के बारे में चर्चा करेंगे, जो एक तरह से कई भ्रामक और त्रुटिपूर्ण व्याख्याओं का स्रोत हैं। अंत में, हम यह समझने की भी कोशिश करेंगे कि हम, आधुनिक अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय, 20 वीं सदी के आरंभ के भारतविदों(इंडोलॉजिस्ट) के कई पीढ़ियों के अनुभवों, चुनौतियों और पूर्वाग्रहों को किस तरह विरासत को अपनाया और आत्मसात कर चुके हैं, यह ध्यान रखते हुए कि उन्होंने एक उच्च दर्शन वाले विविधतापूर्ण मूर्तिपूजक पंथ का अध्ययन, वर्गीकरण और व्याख्या करने का प्रयास एक औपनिवेशिक इतिहास-केंद्रित अलगाववादी अब्राहमिक दृष्टि से किया था |

[1] (Swami Lokeswarananda, 2010, p. 7)

[2] (Sivaramkrishna, 2010)

[3] Swami Madhavananda in (Swami Lokeswarananda, 2010, p. 5)

[4] (Swami Samarpanananda, 2010)

[5] Padoux, André (2002), “What Do We Mean by Tantrism?”

[6] (Talageri, 2016)

[7] http://infolab.stanford.edu/~backrub/google.html

[8] Unlike Vedanta which considers creation as apparent, Tantra posits that non-dual Reality undergoes real evolution using the Samkhya categories.

[9] (Swami Lokeswarananda, 2010)

[10] (Woodroffe J. , 1918, p. Chapter One Indian Religion As Bharata Dharma)

[11] (Swami Samarpanananda, 2011)

[12] (Swami Samarpanananda, 2010, p. 275)

[13] (Woodroffe, 1913, p. Introduction)

[14] (Woodroffe J. , 1918, p. Chapter One Indian Religion As Bharata Dharma)

ग्रन्थसूची

Sivaramkrishna, M. (2010). Tantra Today: Blind Spots and Balanced Studies. Prabuddha Bharata, 282-288.

Swami Lokeswarananda. (2010). Studies on the Tantras. Kolkata: Ramkrishna Mission Institute of Culture.

Swami Samarpanananda. (2010, 4). The Tantras: An Overview. Prabuddha Bharata, pp. 269-275.

Swami Samarpanananda. (2011). Tantra Philosophy and its Practices (Bengali). Belur: Ramakrishna Vivekananda University.

Talageri, S. (2016, 5 7). Two papers by the Renowned Indologist P.E.Dumont. Retrieved from Shrikant G Talageri: http://talageri.blogspot.in/2016/05/two-papers-by-renowned-indologist.html

Woodroffe, J. (1913). Mahanirvana Tantra Translated by Arthur Avalon. Kolkata.

Woodroffe, J. (1918). Shakti and Shakta. Kolkata.

The article has been translated from English into Hindi by Satyam

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Subhodeep Mukhopadhyay

Subhodeep Mukhopadhyay is from a data science background and his research interest includes history, religion and philosophy. He is the author of "The Complete Hindu’s Guide to Islam" and "Ashoka the Ungreat".