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पेजावर स्वामी के सम्मान में

पेजावर स्वामी के सम्मान में

The article has been translated into Hindi by Avatans Kumar (@avatans)

मैं और मेरे पिताजी उन्हें प्यार और श्रद्धा से हमेशा पेजावर स्वामी ही बुलाते थे। पेजावर स्वामी आजीवन मेरे लिए स्मरणीय, यथार्थ, और पूजनीय रहेंगे।  उनके बारे में सोच के ही मेरा मन विस्मय से भर जाता है।  वे मेरे उन तीन महान आध्यात्मिक महापुरुषों में से एक हैं जिनका सानिग्ध्य मात्र ही मेरी इस जीवन-यात्रा में महत्वपूर्ण रहा है। पहले, भगवान श्री सत्य साईं बाबा, जिनका देहावसान २०११ में हुआ था। उनके शिष्य हमारे पिताजी अपने जीवन के सायंकल में बने। दूसरे, मेरे पिताजी जो कि प्यार, पांडित्य, और चातुर्य की खान थे। वो २०१४ में गंतव्य को पधार गए। तीसरे, पेजावर स्वामी। उडिपी के कृष्ण मंदिर के प्रमुख के रूप में पंचम पर्याय करते हुए पेजावर स्वामी अपने जीवन के आठवें दशक में होने के बावजूद आज भी किसी बाल-गुरु की भाँति ही लगते हैं।

मैं पेजावर स्वामी को तब से जनता हूँ जब मैं महज़ पाँच साल का रहा हूँगा। वो हमारे माता-पिताजी के घर हैदराबाद में पधारे थे। मैं बीमार था और मेरा बुखार कई दिनों से उतरने का नाम नहीं ले रहा था। मेरे पिताजी का मानना है कि उनके आने के ही वजह से मैं बच पाया। उसके उपरांत मुझे कई बार उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब भी उनका हैदराबाद में आना होता, हम उनका आशीर्वाद लेने राघवेंद्र मठम या सिकंदराबाद वाले नए संस्कृत संस्थान में पहुँच जाते। कभी-कभी वो अपने विद्यार्थियों की टोली के साथ अपनी पुरानी टूटी-फूटी वैन से हमारे घर भी आ पहुँचते और मेरे माता-पिता को, पड़ोसियों और उनके परिवार के लोगों को, घरेलू कर्मचारियों और उनके बाल-बच्चों को, सबको आशीर्वाद देते। मैं आख़िरी बार उनसे २००६ में मिला था। तब मैंने उन्हें Hinduism Today की एक प्रति भी भेंट की थी जिसमें मेरा कैलीफ़ोरनिया के पाठ्यपुस्तक वाले विवाद के विषय से जुड़ा एक लेख भी छपा था। वो बड़े ख़ुश लग रहे थे उस वक़्त।

मैं उनके ऐतिहासिक पंचम पर्याय के आरम्भ होने के वक़्त उडिपी में ही था। हालाँकि उनसे मिलना सम्भव न हो सक पर मुझे अपनी लिखी पुस्तक Rearming Hinduism की एक प्रति छोटे पेजावर स्वामी को सौंपने का सौभाग्य ज़रूर प्राप्त हुआ। मुझे उनको देखे एक अरसा हो चला है अब पर उनके बारे में सोचकर ही मैं उत्साहित और प्रेरित हो उठता हूँ। महज़ यह जानकर ही काफ़ी ख़ुशी होती है कि वो अभी भी हमारे बीच हैं और हर रोज़ हमें आशीर्वाद देते रहते हैं। नित नए-नए अलंकार में उडिपी कृष्ण की आरती वाली तस्वीर अपने आइफ़ोन में देखना मेरे लिए बहुत मायने रखता है।

आज मैं अपनी लेखनी से उनकी चरणवंदना करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि मेरे इन प्रयासों से उनके बारे में कुछ और विशेष जानना सम्भव हो सकेगा, ख़ास तौर से उन परिस्थितियों में जबकि उनके बारे में जाने-अनजाने ही कुछ भ्रांतियाँ पैदा हो गयी हैं।

पेजावर स्वामी आजकल सुर्खियों में हैं, वह भी फ़िज़ूल की बातों को लेकर। पर हम यह भी जानते हैं कि हमारे देवी-देवता और संत-महात्माओँ की अपनी अलग ही कार्यपद्धति है। यह पूरा प्रकरण यह सिद्ध करता है कि जो हमें ग़लत या बुरा लगता है वह हमारी अपनी ही समझ की कमी का नतीजा है। कुछेक दिनों पहले पेजावर स्वामीजी की एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जिसमें वो उडिपी में अपने कुछ मुसलमान प्रशंसकों को मिठाइयाँ बाँटते हुए दिख रहे थे। इस पूरे प्रसंग में कुछ भी अनोखा या असामान्य नहीं था। उडिपी का कृष्ण मंदिर जितना ही रीति-रिवाजों में धर्मनिष्ठ है उतना ही उदारवादी और बड़े दिल वाला भी है। बिलकुल वैसा ही जैसा की कृष्ण स्वयं हमें देखना चाहेंगे। मंदिर के लंग़र का दरवाज़ा सभी मतावलंबियों के लिए खुला है और सभी मतों के लोग यहाँ अक्सर प्रसाद ग्रहण करते भी हैं। उडिपी कृष्ण अन्न-ब्रह्म के नाम से भी जाने जाते हैं और लोगों को खाना खिलाना यहाँ की एक आदर्श परम्परा रही है। एक मत के लोग किसी दूसरे मत के अगुआ को हँसते हुए स्नेह से देखें इससे सुंदर तस्वीर और क्या हो सकती है?

परंतु येन केन प्रकारेण यह समाचार एक चर्चा और राजनैतिक वाद-विवाद का विषय बन गया। कुछ हिंदू कार्यकर्ता मंदिर में इस्लामी समारोह होने देने की बात को लेकर नाराज़ हो चले। वहीं कुछ सेक्यूलरवादी कार्यकर्ताओं ने इसे देश में बढ़ते हिंदू कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ मुँहतोड़ जवाब के रूप में देखा। शब्दों के वाण ख़ूब चले। पेजावर स्वामी ने स्वयं विडीयो वक्तव्य के ज़रिए इस मुद्दे का ख़ुलासा करने की कोशिश की। उन्होंने लोगों का ध्यान इस बात पर दिलाया कि मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग परम्परागत और बड़े ही क़रीबी रूप से मठ से जुड़े रहे हैं। क्योंकि यह रमज़ान का महीना था, उन्हें इफ़्तार के प्रार्थना के पश्चात प्रसाद ग्रहण करने के लिए लंगर में जगह दी गयी थी।

उन्होंने ने ‘गो-मांस’ खाने के मुद्दे को, जिसे कुछ हिंदू कार्यकर्ता तूल दे रहे थे, इस बुनियाद पर बेमुनासिब ठहराया कि कुछ हिंदू भी गो-मांस का सेवन करते हैं। गो-रक्षा का उद्देश्य ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं बल्कि बात-चीत से ही सफल हो सकता है।  ऐसे समय में जबकि जबकि गाय से जुड़ी समाज तो तोड़ने वाली राजनीति अपने उफान पर है गाय की पवित्रता का आपसी झगड़े सुलझाने में, चाहे वो कितने ही उलझे क्यों न हों, प्रयोग न किया जाए। स्वामी जी के द्वारा हमलोगों को इस बात को याद दिलाने का यह एक अच्छा अवसर था।

आख़िर हम इन आंदोलनों से क्या सीख ले सकते हैं? हम आज एक ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ एक ओर तो ऊँचे-ऊँचे आदर्श हैं और दूसरी ओर क्षुद्रता। साथ ही साथ हम इतिहास के पन्नों के तले दबे होने के बोझ से भी उबरने की कोशिश कर रहे हैं। पहले हमारी कृषि और संस्कृति गऊ-केंद्रित हुआ करती थी। अब उसका रूपांतरण हिंसा के औद्योगिकरण और सामान्यिकरण में हो गया है। वर्षों की छद्म-वैज्ञानिक, छद्म भेदभाव-विहीन, और छद्म ‘किसानों को चाहने वाली’ हकूमतें इसके ज़िम्मेदार हैं। अमरीकी मूलनिवासियों के नरसंहार के ज़माने में मवेशियों के नवाब और सामंतों का नाम तो सुना ही होगा, पर जो हमने भारत में पिछले दशक में देखा है वह भी कम विभत्स नहीं है। मवेशियों को चुराने, उनकी तस्करी इत्यादि करने वाले अपराधियों और सरकारों ने काफ़ी समय तक तक भारत पर एक्छ्त्र खुला और बेलगाम राज किया है।

गायों का शोषण, उनकी बेरहम ढुलाई और परिवहन, और उनके संहार का बहुत बुरा असर किसानों पर हुआ है। पहले ये किसान अपनी आजीविका के लिए गायों, गो-रक्षकों, और धर्मनिष्ट हिंदुओं पर निर्भर रहते थे। पर अब साथ-ही-साथ उन्हें तथाकथित उदारवादी विचारधारा के विश्ववादी प्रतिबंधों को भी झेलना पड़ता है जिसके नुमाइंदे गाँवों से दूर शहरों में रहते हैं। गो-रक्षा की जटिल राजनीति सिर्फ़ संचार मंध्यमों के चालू-पुर्ज़ा मुहावरों में सिमट कर रह गयी है। भेंड़-चाल वाली हिंसा में जिसका गाय से कोई ताल्लूक भी न हो उसमें भी गो-माँस का नज़रिया धूसेड़ दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर गली के टूटपूँजिया गुंडे गाय की आड़ में मुसलमानों पर हमला करने पर तुले रहते है।

समय की माँग है की एक हिंदू संस्थान के अगुआ और एक महान संत के काम से हम प्यार, विनम्रता, और खुलेदिल से सीख लें। इसे हम अपनी राजनैतिक विचारधारा और समकालीन मान्यताओं के आड़े न आने दें। मुझे इस बात का आभास है कि जब मुख्यधारावाले समाचार माध्यम, अपने-आप को धर्मसंगत समझनेवाले कार्यकर्ताओँ की टोलियाँ, झूठ और फ़रेब के सहारे हिंदुओं को बदनाम करने पर तुली हों तो कुछेक हिंदूओँ का ग़ुस्सा लाज़मी है। पर मैं उनके ग़ुस्से में छिपी क्रूरता और निर्लज्जता से भी काफ़ी आहत हुआ हूँ। इन लोगों ने पीछे मुड़ कर अपने किए पर कुछ पश्चाताप किया भी है या नहीं यह तो मैं नहीं बता सकता पर इसकी आशा ज़रूर करता हूँ। आशा ख़ास तौर से इसलिए कि मैं ऐसे हिंदू आंदोलनों का और ख़ास तौर से व्यापक हिंदू समाज का हितैषी हूँ। साथ-ही-साथ मैं उन हिंदू कार्यकर्ताओं का भी शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने इन घटनाओं पर खुलकर बात की और मुझे उनकी साफ़-साफ़ और खुली जानकारी दी।

मुझे पूरा विश्वास है कि पेजावर स्वामी का इस तरह आकर्षण का केंद्र बनना बिना किसी अभिप्राय के नहीं है।  हमारे गुरु हमेशा से हमारे अस्तित्व के केंद्र और आलोक रहे  हैं। उनकी शिक्षा की गहराइयों को नापना आसान नहीं है, ख़ास तौर पर ऐसे समय पर जबकि भाषाई खाइयाँ भी लम्बी हो चली हों। शायद आपको मालूम हो कि मैं मुश्किल से थोड़ी बहुत कन्नड़ समझ पाता हूँ और पेजावर स्वामी बमुश्किल तेलुगु बोल पाते हैं। फिर भी उनको और उनके द्वारा व्यक्त की गयी प्रत्येक सांस्कृतिक विरासत को मैं भली-भाँति समझ पाता हूँ। जब हम उनके पास होते हैं तो अक्सर उनसे रोज़मर्रा की चीज़ें माँगते हैं — शिक्षा, नौकरी, परिवार, स्वास्थ्य, इत्यादि। पर हम उनकी तरफ उनके व्यक्तित्व, उनके अचार-विचार, उनकी साधना, और कभी-कभार उनकी राजनैतिक अगुआई की वजह से भी आकर्षित होते हैं।

सनद रहे, पेजावर स्वामी ने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए दलितों के साथ काम किया और सेक्यूलर-नेहरूवादी हिंदू अनुयाइयों से नाता तोड़ते हुए उन्होंने बड़े ही उत्साह से रामजन्मभूमि आंदोलन में भी शिरकत की। वे सनातन धर्म, हिंदू मत, हिंदुत्व, और जो कुछ भी सार्वभौमिक और सनातन बचा-खुचा है उसके मूर्त-स्वरूप हैं। आइए हमसब मिलकर कृष्ण और स्वामी जी की पूजा-आराधना करें। अपने भाइयों/बहनों को ध्यान में रखते हुए अपना मार्ग भी प्रशस्त करें। और अपनी माता — चाहे वो वेद-माता, गो-माता, भारत-माता, या भू-माता हों – की रक्षा में अपने आप को झोंक दें।

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Vamsee Juluri

Dr. Vamsee Krishna Juluri is a professor of media studies at the University of San Francisco and the author of Rearming Hinduism (www.rearming hinduism.com).