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क्यों ज़रूरी हो जाती है 3600 करोड़ की मूर्ति?

क्यों ज़रूरी हो जाती है 3600 करोड़ की मूर्ति?

3600 करोड़ एक मूर्ति के लिए! 600 मिलियन डॉलर! देश में इतनी भुखमरी है, सड़कें टूटी हुई हैं, कुपोषण है, ठंढ में लोग मर रहे हैं, किसान आत्महत्या करते हैं, ग़रीबी है, बाढ़ है, सूखा है… फिर ये मूर्ति कितनी ज़रूरी है? सरकार की प्राथमिकताएँ, यानि प्रायोरिटीज़, विचित्र हैं। है कि नहीं?

फिर तो हमें पूरे देश में हर मूर्ति को तोड़ देना चाहिए क्योंकि देश में ग़रीबी है और सड़क टूटे हुए हैं! क्योंकि आजकल छोटी मूर्ति बनाने में भी करोड़ का खर्च तो आता ही है। इतिहास लिखने के लिए, जो स्कूलों में पढ़ाया जाएगा, उसमें रीसर्च आदि में शोध बंद करा देना चाहिए क्योंकि वो पढ़ के या ना पढ़ के ही क्या फ़र्क़ पर जाएगा! हम पढ़ने में क्यों पैसे खर्च करते हैं?

जब तक हर आदमी के पेट में अन्न ना हो और हर सड़क बन ना जाए, देश में बन रही हवाई पट्टियाँ, ख़रीदे जा रहे टैंक और ब्रह्मास्त्र, मिसाइल आदि, न्यूक्लिअर पावर वाले रिएक्टर बनाने में हो रहा खर्च सब बंद कर देना चाहिए। जब तक भुखमरी ना मिट जाए सरकारों को हर काम का पैसा हटाकर लोगों का पेट भरने में लगाना चाहिए। आईआईटी आदि में सारा फ़ंड बंद कर देना चाहिए क्योंकि लोग आत्महत्या कर रहे हैं।

ताजमहल देखने क्यों जाते हो? ताजमहल क्या शाहजहाँ के बाप के पैसे से बना था? वो प्यार की मिसाल हो गई, लेकिन उसमें कितने लोगों के मेहनत की कमाई गई थी ये याद नहीं है तुमको। उसमें कौन मरा था, ये याद नहीं है तुमको। तुम उसको मुग़ल स्थापत्य कला का चरम कहते हो। उसके रखरखाव में कितना पैसा लगता है हर साल मालूम है? गूगल पर जाकर सर्च कर लो।

ये सारे मंदिर क्यों जाते हो घूमने? क्योंकि ये पहले से बने हुए हैं? इसमें कितना पैसा लगा था और वो किसका लगा था ये कभी पूछा? हम रॉकेट से मंगलयान क्यों छोड़ रहे हैं? वो साईंस है। तो क्या उससे भूखमरी मिट रही है? ग़रीब तो तब भी मर ही रहे हैं देश में!

शिवाजी की मूर्ति, ताजमहल, कोणार्क का सूर्य मंदिर, अजंता की गुफाएँ, अंबेदकर की संविधान हाथ में ली हुई मूर्ति, गाँधी के नाम की सड़कें, स्टेडियम आदि सिर्फ मूर्तियाँ और खंडहर नहीं हैं। ख़ुद से पूछो कि शिवाजी के बारे में कितनी लाइन लिख सकते हो बिना विकिपीडिया पढ़े, पता चल जाएगा।

हर समाज का एक इतिहास होता है। और जब तुम पर तुर्कों, हूणों, कुषाणों, मुग़लों, इस्लामी लुटेरों, अंग्रेज़, पुर्तगाली, फ़्रांसीसी, स्पेनिश औपनिवेशिक शक्तियों ने हमला किया, गुलाम बनाया और राज किया तो इन्होंने सबसे पहले तुम्हें लूटा। तुम्हारा बलात्कार किया, और फिर तुम्हारे इतिहास का भी बलात्कार किया। तुम्हारी किताबें और पांडुलिपियाँ जला दी गईं। तुम जो पढ़ते हो उन्होंने अपने मन से लिखा। तुम्हें आर्य बना दिया, किसी को द्रविड़ और फिर तुम आज तक लड़ते रहे।

किसीसमाज भी को कुचलने और ख़ुद पर अविश्वास करने की स्थिति में लाने की सबसे पहली तरकीब होती है उसके इतिहास को नष्ट कर देना। उसकी भाषाओं को निगल जाना। उसके भूतकाल को अपने हिसाब से अगली पीढ़ियों तक पहुँचाना। इसीलिए अमेरिका और यूरोप का हर बच्चा अपना इतिहास बख़ूबी जानता है। लेकिन तुम बोर्ड में नंबर लाने के लिए एक गलत इतिहास पढ़ते रहे, कभी बड़े होकर उससे इतर ना पढ़ा, ना सोचा।

इसीलिए तुम्हें हर अंग्रेज़ ज्ञानी दिखता है, हर मुग़ल शासक तुम्हारे देश की स्थिति सुधारता नज़र आता है, हर बर्बर लुटेरे में तुम्हें एक ‘सुशासन’ लाने वाला नेता दिखाया जाता है। तुम्हें कहा जाता है कि वो लुटेरे थे, शोषक थे लेकिन तुम्हें अंग्रेज़ी दे दिया, तुम्हें रेल की पटरियाँ दे दीं, तुम्हें ताजमहल दे दिया। तो क्या ताजमहल का केक बनाकर खा जाएँ? पटरी क्या हमारे लिए बनाई गई थी या फिर हमारा सामान लूटकर ले जाने के लिए?

शिवाजी कौन था? पेशवा बाजीराव कौन था? कुँवरसिंह कौन थे? लक्ष्मीबाई कौन थी? कित्तूर की रानी चेनम्मा कौन थी? बंदूक़ें बोने वाला भगत सिंह कौन था? अंग्रेज़ी हुकूमत के ताबूत में कील ठोंकने वाला लाला लाजपत राय कौन था?

इन सब की विशाल मूर्तियाँ लगानी ज़रूरी है क्योंकि ये हमारे सड़कों और विद्यालयों से ज्यादा ज़रूरी हैं। ये हमारी शिक्षा का एक हिस्सा है। ये तब और भी ज़रूरी है जब एक शिक्षण संस्थान में आतंकवादियों के अरमानों को पूरा करने की कसम खाई जाती है और देश के टुकड़े करने की आवाज उठाई जाती है। ये बताना ज़रूरी है कि हमारा इतिहास क्या था ताकि हम भविष्य की ओर देख सकें।

ये किसी मायावती की मूर्ति नहीं है। ये किसी पार्टी का चुनाव चिह्न नहीं है। ये किसी घोटालेबाज़ चोर की मूर्ति नहीं है जिसके नाम से तुम्हारे हवाई अड्डे, स्कूल, कॉलेज, छात्राओं के हॉस्टल, जगहों के नाम, दसियों सड़कें, स्टेडियम पटे पड़े हैं। ये किसी आतंकी अफ़ज़ल की तस्वीर नहीं है, ना ही बुरहान या याकूब का जनाजा है जिसमें टोपियाँ पहने मुसलमानों का हुजूम तुम्हें दिखता है। वो टोपियाँ भी एक स्मारक हैं जो तुम्हें याद दिलाते हैं कि हज़ारों लोगों के लिए मुसलमान नाम कितना ज़रूरी है भले ही उसने इसी देश के ख़िलाफ़ साज़िश रची और सैकड़ों लोगों को मारा।

वो एक मूर्ति नहीं है, वो एक गौरवशाली इतिहास का एक पन्ना है जिसे पढ़ना ज़रूरी है। वो उस इतिहास का पन्ना है जिसे तुम्हें पढ़ने से रोका जा रहा है। देश की परिकल्पना सिर्फ ग़रीबी मिटाने से या लंबी इमारतों से नहीं होती। हर देश का एक इतिहास होता है, हर देश के लोगों में विश्वास भरने के लिए, ये कार्य भी ज़रूरी है। ये काम उतना ही ज़रूरी है जितनी तुम्हारी पढ़ाई। इसे बनाने की भी उतनी ही कोशिश होनी चाहिए जितनी भुखमरी मिटाने की।

जिन्हें ये सिर्फ एक पार्क या मूर्ति लग रही हो, वो या तो नासमझ हैं, या बने रहना चाहते हैं। अगर नाम में मोहम्मद लगा होता तो शायद देश की भुखमरी ग़ायब हो जाती। नाम अगर अकबर होता तो कुपोषण और ग़रीबी की बात कोई नहीं करता। नाम अगर टीपू सुल्तान होता तो मूर्ति की ऊँचाई बढ़ाने के लिए लोग चंदा दे रहे होते। लेकिन क्या कीजिएगा नाम है शिवाजी जिसने मुग़लों के अंदर बाँस डालने का काम किया था। दर्द तो होगा ही कुछ लोगों को। और दर्द होगा तो ग़रीब याद आएँगे। क्योंकि ग़रीब बस अलग-अलग समय पर याद ही आने के लिए हैं।

एक बात और, स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी जब बनी थी तो उसका पूरा ख़र्च, अभी के समय के हिसाब से, लगभग 1.6 बिलियन डॉलर होता। ऐफिल टावर अगर आज बनाया जाता तो उसका ख़र्च भी लगभग 1.5 बिलियन डॉलर आता। और हाँ, उस समय फ्राँस और अमेरिका में लोगों की हालत के बारे में भी पढ़ लीजिएगा।

The article has been republished from author’s blog with permission.

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Ajeet Bharti

Author is an avid blogger who prefers to write on social and political issues. He is the author of best selling Hindi ‘bachelor satire’ Bakar Puran. He has just delivered his latest Hindi novel named 'Ghar Wapasi'. Follow him on Twitter @ajeetbharti