केरल में सरेआम काटी गई गाय, हाय-हाय, हाय-हाय, हाय-हाय
केरल में गाय काटी गई, रिपोर्ट में आया कि भैंस कटी है, फिर आया कि बैल काटा गया है और अंततः कल-परसों तक इस पर चर्चा होगी कि केरल में जो पब्लिक में मुर्ग़ा कटा है उसकी इजाज़त संविधान देता है कि नहीं। गाय क्यों काटी गई? ये दिखाने के लिए केन्द्र सरकार ने जो मवेशियों के व्यापार पर रोक लगाया है वो गलत है। इसके बाद बीफ़ ईटिंग फ़ेस्टिवल का आयोजन हो रहा है।
आपको बार-बार एक बात बताई जाती है कि गोमाँस तो देश के दलितों और ग़रीबों का मुख्य भोजन है, तो इस पर रोक क्यों लगाई जा रही है। ये बात और है कि लाउडस्पीकर के शोर पर आप लिखिए तो भावनाओं का बलात्कार हो जाता है। एनएसएसओ के आँकड़े कहते हैं कि जिन दलितों और आदिवासियों के नाम गोमाँस खाने का ठीकरा फोड़ा जाता है, उनकी कुल आबादी (लगभग ३० करोड़) का मात्र तीन प्रतिशत हिस्सा ही गोमाँस खाता है। कुल खाने वालों का 97% मुसलमान हैं। और इससे किसी को दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। जिसको जो खाना है खाए, बस हमारी चुरा कर ना काट ले। या हमारे घर के सामने आकर हमें चिढ़ाने के लिए फ़ेस्टिवल ना करे।
केरल में गाय का गला रेत दिया गया। रेतने वाले राहुल गाँधी के उतने ही क़रीबी हैं जितने अंबानी हैं मोदी के। क्योंकि अगर फोटो ही आधार है क़रीबी होने का तो केरल यूथ कॉन्ग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ कई आयोजन में दिखते हैं। हलाँकि राहुल गाँधी ने इसकी भर्त्सना की है, और शशि थरूर ने हाँ में हाँ मिलाते हुए उसे कॉन्ग्रेस की विचारधारा से दूर कर दिया है, लेकिन बात ये है कि गौरक्षक सेनाओं को भाजपा से किस आधार पर जोड़ा जाता है? इसीलिए ना कि इनको शह मिलती है सरकारों से। फिर कॉन्ग्रेस के यूथ विंग को ये करने की शह कहाँ से मिली है। आपके ही तर्क से चलेंगे।
ये रेतना सिर्फ गाय का नहीं है। ये छटपटाहट है और एक संदेश भी है हिन्दुओं को कि तुम हिन्दू प्रतीकों को गरिया कर सेकुलर बनने की कोशिश करते रहो, और वो ख़तना को साइंटिफ़िक बताते रहेंगे। ये कन्वर्ट लोगों की छटपटाहट है जो ख़ुद को बेहतर विचारक, बेहतर ईसाई, बेहतर मुसलमान, बेहतर हिन्दू बताने के लिए अपनी जड़ों को (जो कि अंततः हिन्दू होने में ही है भले ही वो अपने दादा को सऊदी से आया बताएँ या इंग्लैंड से) काटते हुए, किसी भी हद तक हिन्दू प्रतीकों के अपमान करने हेतु गिर सकते हैं।
लेकिन हिन्दू चुप रहेगा। क्योंकि ये साइंटिफ़िक नहीं है। गाय कट रही है, जानवर कट रहा है। मूर्ति पूजना मूर्खता है, पत्थर चूमना साइंटिफ़िक है। लेकिन ये डिबेट है भी नहीं। ये चर्चा का विषय या मुद्दा नहीं है। चर्चा इस बात की है कि ये हो क्यों रहा है? क्या इसके पीछे सिर्फ राजनीतिक महात्वाकांक्षा ही है या फिर इसकी जड़ में वो मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जिसमें किताबों के दसियों पन्नों पर किसी ना दिखाई देने वाले देवता की हुकूमत स्थापित करने के लिए किसी भी तरह की हिन्सा को ज़ायज मानना है?
क्या ये सुनियोजित षड्यंत्र नहीं है हिन्दुओं की सहिष्णुता जाँचने के लिए? हम लाउडस्पीकर जोर से बजाएँगे, जो उखाड़ना है उखाड़ो। हम गोमाँस खाएँगे, और तुमको दिखाकर खाएँगे, तुमको जो करना है कर लो। हम गाय को सरेआम बस इसलिए काट देंगे कि तुम्हें बता सके कि हम काट सकते हैं, तुम्हारी औक़ात में जो करना है कर लो।
जब आदम ने सेव खा लिया था तभी से दिक्कत शुरू हो गई थी। ज्यादा ज्ञानी हो जाने से दिक्कत होना लाज़मी है। ज्ञान से आपको दिक्कत नहीं होती, दूसरों को हो जाती है। सेव खाया आदम ने और सजा मिली पूरी मानवता को कि जाओ और धरती पर टहलते रहो। आजकल का सेव जो है वो गोमाँस है। अंग्रेज़ी में बीफ़ कहते हैं। एक ‘सेकुलर’ राज्य में रहने वाले मेजोरिटी की व्यथा ये होती है कि माईनोरिटी तुष्टीकरण (अपीज़मेंट) और स्वघोषित बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में हम जानबूझकर किसी की भावनाओं को हानि पहुँचाना चाहते हैं।
गोमाँस बहुत लोग खाते हैं। वंदे मातरम् बहुत मुसलमान नहीं गाते हैं। ईसाई लोग जीसस को देवता बनाकर दिल्ली यूनिवर्सिटी के फ़र्स्ट ईयर के बच्चों को जीसस भजन पार्टी पर बुलाते हैं और कुकीज़ खिलाते हैं। सारी बातें ठीक हैं क्योंकि हमारे संविधान की प्रस्तावना में ‘सेकुलर’ शब्द है और धार्मिक स्वतंत्रता संविधान के दिए मौलिक अधिकारों में से एक है।
शार्ली एब्दो (गलती से चार्ली हेब्दो भी कहते हैं लोग) याद है आपको? कार्टूनिस्टों ने मोहम्मद का कार्टून बनाया था और फिर गॉड द फ़ादर के पास पहुँचा दिए गए। तब आपमें से कई ने ‘जे सुई शार्ली’ का हैश टैग लगाया था।
धार्मिक भावनाएँ सिर्फ मुसलमानों की नहीं होती। भावनाओं के आहत होने के लिए माईनोरिटी होना ज़रूरी नहीं। लेकिन बुद्धिजीविता का परिचय देने के लिए माईनोरिटी अपीज़मेंट के साथ मेजोरिटी बैशिंग ज़रूरी होता है।
अगर आपको वंदे-मातरम् गाने पर ऐतराज़ है, आप दूसरे धर्म को उकसाने के लिए बीफ़ खाएँगे, आप एक देश में रहकर वहाँ की पुलिस से प्रोटेक्शन चाहते हों, वहाँ की नीतियों का हिस्सा हैं लेकिन क़ानून आप शरिया का मानेंगे तो फिर ये वैचारिक दोगलापन ही है। और इससे साफ़ पता चलता है कि आप किसी दूसरे धर्म का कितना सम्मान करते हैं।
ये सब मुसलमानों के लिए, सब बुद्धिजीवियों के लिए नहीं है। उनके लिए जो ऐसा करते हैं। गाय माता है या नहीं ये मसला अलग है। गाय तुम्हारे लिए माता नहीं है तो हम क्यों अल्लाहु अकबर झेलें? क्योंकि ये साम्प्रदायिक सौहार्द्र है। ये समावेशन है, इन्क्लूज़न, टॉलरेंस है। जो अगर हम तुम्हारे लिए दिखाते हैं तो तुम भी दिखाओ। नहीं दिखा सकते तो न्यूट्रल रहो।
गाय का माँस खाने का तुम आयोजन करो और ये सोचो कि अस्सी करोड़ हिंदूओं में तुम्हारे मोहम्मद के कार्टून बनाने पर गोली-बम मारने वाले मुसलमान सरीखा कोई पागल नहीं होगा तो ये मूर्खता है।
मैं कोई अल्टीमेटम नहीं दे रहा। मैं ये कहना चाह रहा हूँ कि पागल और मूर्ख हर धर्म में है। भावनाएँ हर धर्म के लोगों की आहत होती है। मोहम्मद का कार्टून बनाने से मुसलमानों को क्यों दिक्कत है? क्योंकि वो आपके पैग़म्बर हैं? तो रहें पैग़म्बर। ठीक वैसे ही जैसे आप ये सोचते हैं कि गाय हिंदुओं की माता है? तो रहे माता, हमारी तो नहीं।
तो भैया, बुद्धिजीविता के रोग में सने भैया लोग, गोमाँस खाओ, ठूँस ठूँस कर खाओ लेकिन वैचारिक खोखलापन मत दिखाओ कि सड़क पर खा रहे हो। ये दिलासा मत दो खुद को कि ये सॉलिडेरिटी है। पंद्रह लोगों के लिए सॉलिडेरिटी के चक्कर में अस्सी लोग को तुम जानबूझ कर दुःखी कर रहे हो। फिर कोई तुम्हें घसीट कर मार-पीट देगा तो रोते फिरोगे कि ‘मार दिया रे! मार दिया रे!’, ‘इस देश में ह्यूमन लाईफ़ का मूल्य नहीं’ ब्ला, ब्ला, ब्ला…
मेरे पास कुछ मुद्दे हैं जिसपर बुद्धिजीवी लोग सॉलिडेरिटी दिखा सकते हैं: अशिक्षा, जेंडर वाॅयलेंस, किसान आत्महत्या, वॉटर-सेनिटेशन इशू, ग़रीबी, भुखमरी आदि।
लेकिन नहीं, इतना समय कहाँ है आपके पास। और उसमें तो हिंदू-मुसलमान भी नहीं है। उसमें तो आम इंसान है जिसके लिए धर्म बहुत बाद की बात है, खाने तक को लाले हैं।
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