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कौन अधिक हानिकारक? जाली, विकृत या राजनीति-प्रेरित समाचार?

कौन अधिक हानिकारक? जाली, विकृत या राजनीति-प्रेरित समाचार?

जाली समाचार देने के विरुद्ध सूचना व प्रसारण मंत्री की पहलकदमी उठते ही दब गई। कुछ लोग इसे उचित बता रहे हैं। यद्यपि सभी मानते हैं कि मीडिया में मनगढ़ंत, जाली, विकृत और प्रायोजित समाचारों की संख्या बढ़ रही है। यह केवल सोशल मीडिया तक सीमित नहीं है। हाल के उदाहरण देखें।

अभी पिछले सप्ताह एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने सुर्खी देकर छापा, ‘उच्च जाति के लोगों ने गुजरात में दलित युवक को घोड़े पर चढ़ने के कारण मार डाला।’ उसी समाचार के विस्तृत विवरण में अंदर पुलिस सुपरिंटेंडेंट के हवाले से यह भी था कि वह युवक स्कूल गेट पर और जहाँ-तहाँ लड़कियों के सामने स्टंट करता रहता था, जो भी उस पर हमले का कारण हो सकता है। किन्तु अखबार ने जाति-गत हमले की हेडलाइन बनाई, जो पूरी दुनिया में तुरत फैल गई – क्योंकि यही रंगत विदेशियों के लिए उस समाचार को सनसनीखेज बनाती! इस तरह, खबर को जान-बूझ कर जातिगत रंग देकर पेश किया गया।

इसी तरह, हाल में ही एक अन्य बड़े अंग्रेजी अखबार में समाचार छपा, ‘सोशल मीडिया पर फोटो शेयर करने के लिए युवक की गिरफ्तारी।’ लेकिन उस में यह छिपा लिया गया कि वह फोटो कैसी थी। उस युवक ने एक मंदिर में शिवलिंग पर जूते सहित अपना पैर रखकर सेल्फी ली थी, जिसे सोशल मीडिया में डालने पर किसी ने पुलिस में शिकायत की और पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया।

वस्तुतः जाति, धर्म, मजहब और पार्टी से जुड़े समाचारों में अधिकांश मीडिया का विषम व्यवहार रोजमर्रे की बात हो गई है। अनेक पत्रकार एक विशेष समूह को उत्पीड़क और दूसरे को उत्पीड़ित बताने का अघोषित लक्ष्य रखते रहे हैं। कुछ के लिए यही स्थिति राजनीतिक पार्टियों और संगठनों के प्रति भी रही है। इस के लिए खबरों को आधे-अधूरे प्रस्तुत करना, तोड़ना-मरोड़ना, कभी उत्पीड़क तो कभी उत्पीड़ित की पहचान छिपाना, अथवा खूब प्रमुखता देकर छापना, आदि इस के साधन रहे हैं। यदि निष्पक्षता से जाँच हो, तो यह सब निस्संदेह विकृत समाचार देने के उदाहरण हैं। गोधरा कांड (2002) के बाद तो बारह वर्षों तक लगातार यह सब उत्साहपूर्वक चलता रहा। अब इसे सभी कमो-बेश स्वीकारते भी हैं।

लेकिन वह पूरी तरह बंद नहीं हुआ है, जो ऊपर के उदाहरणों से देखा जा सकता है। प्रश्न है कि समाज में जातिगत, धर्मगत और पार्टीगत पक्षपात या वैमनस्य फैलाने के लिए मीडिया के दुरूपयोग के दुष्परिणामों पर क्या विचार नहीं करना चाहिए? आतंकवाद संबंधी कई कांडों की जाँच-पड़ताल में यह सामने आया है कि झूठे या विकृत समाचारों का किशोरों, नवयुवकों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वे उस घटना का बदला लेने की प्रवृत्ति से भरते हैं, जिसे अतिरंजित या गलत रूप से प्रसारित किया गया था।

इन सब के अलावा, विदेशियों के प्रलोभन से नकली और प्रायोजित समाचारों से भी हमारे देश की भारी हानि होती रही है। इस का सब से भयावह प्रमाण सोवियत गुप्तचर एजेंसी के.जी.बी. के अभिलेखागार के पूर्व-कर्मचारी वसीली मित्रोखिन के दस्तावजों से सामने आया था। उस की चर्चा हमारे राजनीतिक, बौद्धिक वर्ग ने नहीं के बराबर की, इस से भी उस रहस्य का संकेत मिलता है जो उस में उजागर किया गया था।

वस्तुतः भारतीय लोग ‘मित्रोखिन आर्काइव्स, खण्ड एक (1999) तथा खण्ड दो (2005) के प्रकाशन के बाद भी एक गहरी बात से अपरिचित हैं! पुस्तक के पहले खण्ड के हजार पृष्ठों में यूरोप और अमेरिका में के.जी.बी. के कई एजेंटों और उन के कारनामों का विवरण था, जिस के आधार पर उन देशों में अनेक एजेंट और सामग्रियाँ पकड़ी गईं। मित्रोखिन आर्काइव्स के तमाम विवरणों, घटनाओं, आंकड़ों आदि में एक भी गलती नहीं पाई गई, जिन की जाँच विविध देशों में वहाँ की सरकारों ने की।

उसी पुस्तक के दूसरे खण्ड में दो अध्याय (पृ. 312-340) भारत में के.जी.बी. के अनेक कामों के बारे में हैं। नेहरू काल से लेकर इस में लगभग 1989 तक के कुछ छिट-पुट विवरण हैं। अर्थात, जो दस्तावेज के.जी.बी. कर्मचारी वसीली मित्रोखिन को मिले थे और जिसे वे नोट कर बाहर ले जा सके थे। उस पुस्तक के पृ. 324 पर भारतीय मीडिया के एक हिस्से का यह रूप भी मिलता है – ‘‘के.जी.बी. की फाइलों के अनुसार इस ने सन 1973 तक भारत के दस अखबारों और एक न्यूज एजेंसी को (कानूनी कारणों से उन के नाम नहीं बताए जा सकते) नियमित रूप से पैसे देकर नियंत्रण में कर लिया था। वर्ष 1972 के दौरान के.जी.बी. ने भारतीय अखबारों में अपनी ओर से प्रायोजित 3789 सामग्री छपाने का दावा किया – संभवतः किसी गैर-कम्युनिस्ट देश में यह सब से बड़ी संख्या थी। फाइलों के अनुसार, यह संख्या 1973 में गिर कर 2760 हो गई, जो 1974 में बढ़कर 4486 और 1975 में 5510 हो गई। कुछ मुख्य नाटो देशों में के.जी.बी. ऐसे सक्रिय उपाय अभियानों के बावजूद तुलना में बमुश्किल एक प्रतिशत से कुछ अधिक चीजें प्रकाशित करा पाया था, जो उस ने भारतीय प्रेस में करवाया।’’

यह केवल एक झलक है। वह भी आज से चालीस-पैंतालीस वर्ष पहले की। उन प्रायोजित समाचारों, सामग्रियों, जाली कागजातों के बल पर भारतीय राजनीति के सर्वोच्च स्तर पर निर्णय प्रभावित होने के विवरण भी पुस्तक में हैं। सब से भयंकर बात यह है कि पुस्तक में ‘कानूनी कारणों से’ भारत में राजनीतिक, अकादमिक और मीडिया जगत में ऐसे सैकड़ों के.जी.बी. एजेंटों की पहचान नहीं दी गई (जो पहले खंड में यूरोप, अमेरिका में एजेंटों के बारे में छाप दी गई थी)।

इस का अर्थ यह भी है कि ब्रिटिश और अमेरिकी सरकार को भारत में उन एजेंटों, यानी नेताओं, अफसरों, संपादकों, प्रोफेसरों और संस्थानों के नाम गत पंद्रह वर्षों से मालूम हैं – क्योंकि यह पुस्तक ब्रिटिश सरकार की ओर से गहरी छान-बीन के बाद प्रकाशित हुई थी! इसीलिए पहले खंड में में वे नाम छपे थे। मगर भारत की जनता आज तक अँधेरे में है कि वे कौन लोग थे, और आज भी मौजूद हैं, जिन्हें के.जी.बी. ने खरीदा हुआ था। कौन जाने वे तथा वैसे कितने अन्य लोग आज भी किन-किन विदेशी एजेंसियों के लिए काम कर रहे हैं?

फिर, अंदरूनी स्तर पर भी, कुछ वर्ष पहले राडिया टेपों के उजागर होने के बाद सामने आया था कि हमारे कई बड़े पत्रकार राजनीतिक फिक्सिंग का काम भी करते रहे हैं। स्पष्टतः यह सब एक दिन में या एकाएक नहीं हुआ हो सकता। मीडिया की शक्ति का दुरुपयोग करके ही वह सब हो सका। अतः किसी व्यक्ति, कंपनी, राजनीतिक पार्टी या विदेशी ताकतों को लाभ पँहुचाने के सभी क्रिया-कलाप एक ही समस्या का संकेत करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार प्रीतीश नंदी ने बहुत पहले ही चिंता जाहिर की थी, कि बुरी खबर, और खासकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाली खबरों के प्रति हमारे अंग्रेजी संपादकों में ऐसा आकर्षण है कि वे उस की किसी जाँच, प्रमाणिकता की जरूरत नहीं समझते। यही हाल रहा तो कुछ दिनों में पत्रकार ऐसी रिपोर्टें गढ़ने लग जाएंगे। वस्तुतः टी.वी. चैनलों में तो यह होता ही रहा है। कई स्टिंग ऑपरेशन वास्तव में गढ़े गए समाचार थे।

अब सोचें, कि मनगढंत, जाली, मिलावटी, शरारतपूर्ण, राजनीति-प्रेरित और विदेशियों की सेवा करने वाले समाचारों में सब से घातक कौन है? यह भी कि क्या गर्हित उद्देश्यों से ऐसी खबरों, सामग्रियों का धंधा वैसे ही चलता रहना चाहिए?  यह समझने के लिए बड़ी बुद्धि की जरूरत नहीं कि समाचारों में अतिरंजित या झूठे आरोपों को हवा देने से आम लोग भ्रमित होते हैं। सामुदायिक दूरी और वैमनस्य बढ़ता है। इस के परिणाम कहाँ तक जा सकते हैं। इस की झलकियाँ कई बार मिल चुकी हैं। अतः मीडिया के समर्थ, स्वाभिमानी लोगों को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए और सरकार को भी कोई सही उपाय निकालने में सहयोग देना चाहिए।

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Shankar Sharan

Dr. Shankar Sharan is Professor, Political Science at the NCERT, New Delhi