जगन्नाथ पुरी: 18 आक्रमणों का गवाह
कुछ दिनों पहले पुरी में जगन्नाथ यात्रा हुई थी| जैसे जैसे रथ जगन्नाथ मंदिर से पुरी के ही गुंडीचा मंदिर की ओर बढ़ रहा था हज़ारों लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा| यह एक भव्य और दर्शनीय नज़ारा था|
यह शोभायात्रा उड़ीसा के लोगों और उन हिन्दू शासकों द्वारा पुरी पर हुए बारम्बार आक्रमणों का दंश झेलने और उससे इसे सुरक्षित बचाने का उत्सव भी है|
लेकिन वक्त हमेशा इतनी भयावह नहीं था। पुरी के इतिहास की सराहना करना महत्वपूर्ण है, यह समझने के लिए कि आज यह भव्य शोभायात्रा निकालना एक बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। बहुत कुछ अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की तरह है, जो मुगल शासन के तहत लंबे अंधकार के बाद महाराजा रणजीत सिंह के अधीन सिख शासन की उजाले को दर्शाता है, पुरी स्थित मंदिर भी एक हिंसक इतिहास का उत्तरजीवी है। एक इतिहास, जिसमें मंदिर की रक्षा के लिए लड़ाई हुई और मूर्तियों को जलाने का प्रयास किया गया। मंदिर पर 800 ई. से 1740 ई. के बीच सत्रह से कम हमले नहीं हुए, जिनमें से सोलह तो 1390 ई. से शुरू होने वाली चार शताब्दियों से भी कम समय में हुए।
मूर्तियाँ लकड़ी की बनी होती हैं, विशेष रूप से नीम के पेड़ की और प्रत्येक मूर्ति में एक गुहा होती है, जिसे “ब्रह्मपदार्थ” कहा जाता है। कोई नहीं जानता कि यह क्या है। हर बारह से पंद्रह साल बाद मूर्तियों को बदल दिया जाता है और ब्रह्मपदार्थ मूर्तियों के एक नए सेट में स्थानांतरित हो जाता है। पूरे समारोह को पुजारियों की आंखों पर पट्टी बांधकर गोपनीयता के साथ संपन्न कराया जाता है। आखिरी बार यह 2015 में हुआ था। इस समारोह को खुद नबकलेवर कहा जाता है। इस लेख में, “मूर्ति” शब्द का अर्थ जगन्नाथ, बलराम, सुभद्रा की लकड़ी की मूर्त्तियों से है|
लगभग हर बार, मूर्तियों (या ब्रह्मपदार्थ) को समय रहते बचा लिया गया और कहीं और ले जाया गया। हर बार उन्हें पुरी वापस लाया गया और पूजा फिर से शुरू हुई। ऐसा एक या दो बार नहीं बल्कि चार सौ साल के दौरान अठारह बार हुआ। इस पर इतनी बार आक्रमण क्यों किया गया? शायद, जगन्नाथ पुरी मंदिर के महत्व के कारण; न केवल मंदिर के पास बहुत अधिक धन था, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि पुरी के देवता ओडिशा के मालिक थे। ओडिशा के 12 वीं शताब्दी के राजा – अनंगभीमदेव तृतीय ने स्वीकार किया था कि मालिक जगन्नाथ थे और वे केवल उनके नाम पर शासन कर रहे थे। ऐसा ही विचार उदयपुर के पास एकलिंगजी मंदिर के साथ भी है। मेवाड़ के राणाओं ने एकलिंगजी को सर्वोपरि माना और खुद को उनके नाम के शासक। दिलचस्प बात है कि हजारों मील की दूर के दो शासक के विचारों में एकरूपता है। इससे मंदिर को किसी भी कीमत पर बचाने का लक्ष्य हासिल हुआ। इसलिए, मंदिर पर हमला करना उड़िया चेतना की जड़ पर प्रहार करना और लोगों का मनोबल गिराने जैसा था।
हम में से बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि ओडिशा मुस्लिम शासन के अधीन 1568 ई. के अंत तक आया – बंगाल के तीन शताब्दी से अधिक के बाद और पश्चिम आंध्र क्षेत्र के मुस्लिम शासन के अधीन आने के भी कई वर्षों के बाद| और 1751 तक, नागपुर स्थित भोसले द्वारा छापामार युद्ध में विजय के बाद, ओडिशा पर बंगाल नवाबों का शासन समाप्त हो गया। गंगवंश के नरसिंहवर्मन और गजपति राजवंश के कपिलेंद्रदेव जैसे योद्धाओं ने न केवल ओडिशा को क्षत-विक्षत होने से रोका, बल्कि इसकी संस्कृति और मंदिर आधारित जीवन को उचाईयों पर ले गए। लेकिन जगन्नाथ पुरी पर कई बार हमले का प्रयास हुआ। उड़िया राजाओं ने अपने शासन का बचाव कैसे किया, मैं इस बारे में बाद के एक लेख में लिखूंगा, लेकिन यहाँ मैं उन अठारह आक्रमणों को संक्षेप में बताऊंगा जो जगन्नाथ पुरी को झेलने पड़े।
पहला आक्रमण
पहला आक्रमण 9 वीं शताब्दी में, राष्ट्रकूट राजा – गोविंद तृतीय द्वारा किया गया था। मूर्त्तियों को स्थानीय पुजारियों द्वारा कहीं और ले जाया गया और छिपा दिया गया। अन्य हिंदू राजाओं के मंदिरों पर हिंदू राजाओं के हमले कुछ बार हुए, लेकिन इसका बुरा परिणाम ज्यादा से ज्यादा यह होता था कि मूर्तियों को अन्यत्र पूजा जाने लगता था। मूर्तियों को नष्ट कर देने का प्रयास, जो भविष्य के अधिकांश आक्रमणों की पहचान है, इस अकरम में वैसा नहीं हुआ। राष्ट्रकूट आक्रमण का अर्थ केवल शासक परिवर्तन था, संस्कृति बदलने का प्रयास नहीं।
दूसरा आक्रमण
पहले आक्रमण के बाद, अगली पांच शताब्दियों के लिए, पुरी में मंदिर को कोई नुक्सान नहीं पहुँचाया गया। 1340 ई में, बंगाल के सुल्तान इलियास शाह ने मंदिर पर हमला किया। इलियास शाह वह व्यक्ति था जिसने “बंगाल सल्तनत” की स्थापना की – जो कि विभिन्न रूपों में और विभिन्न शासकों के अधीन, दिल्ली के पक्ष या विरोध में, 1757 ई. में प्लासी के युद्ध तक कायम रहा। आक्रमण से बहुत विनाश हुआ, लेकिन मूर्तियों को छिपा दिया गया और इसलिए मूर्त्तियां बच गयीं।
तीसरा आक्रमण
बीस साल बाद, फिरोज शाह तुगलक ने आक्रमण किया। कुछ का मानना है कि उसने वास्तव में मूर्तियों को हथिया लिया और उन्हें समुद्र में फेंक दिया, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हुई है। फिरोज शाह तुगलक ने बाराबती में भी कुछ मंदिरों को नष्ट किया।
चौथा आक्रमण
चौथा आक्रमण प्रतापरुद्रदेव (1497 से 1540) के शासनकाल के दौरान हुआ। उसने राज्य की उत्तरी सीमाओं को काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया था, इसलिए बंगाल सुल्तान के एक कमांडर इस्माइल गाजी के पास राज्य पर आक्रमण करना और पुरी तक पहुंचना आसान हो गया था। पुरी पहुँचने से पहले उसके द्वारा किये गए विनाश को देखकर जगन्नाथ मंदिर के पुजारी मूर्तियों को भगा ले गए और उन्हें चिल्का झील के चढ़ेइगुहा द्वीप पर छिपा दिया। प्रतापरुद्रदेव ने आखिरकार एक बड़ी सेना को एकत्र कर इस्माइल गाजी को वापस बंगाल तक खदेड़ दिया, लेकिन नुकसान तो हो चुका था।
पाँचवा आक्रमण
पाँचवाँ आक्रमण, जो सर्वाधिक विनाशकारी आक्रमण था, 1568 ई. में कालापहाड़ द्वारा किया गया था। इसने ओडिशा में हिंदू शासन के अंत का भी संकेत दे दिया था| इस कालापहाड़ की उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धांत हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वह राजीव लोचन रे नाम का एक हिंदू था, जिसे सुलेमान कर्रानी की बेटी से प्यार हो गया था। कर्रानी बंगाल का सुल्तान था। इसके रिश्ते के सामाजिक विरोध के कारण, उन्होंने अपना धर्मांतरण कर लिया और हिंदुओं के लिए स्वधर्मत्यागी बन गया। एक अन्य सिद्धांत यह है कि राजीव रे की कहानी मनगढ़ंत है और बंगाल सुल्तान की सेना में कालापहाड़ एक अफगान सेनापति था।
जो कुछ भी हो, एक मूर्ति-भंजक और बुतशिकन (मूर्ति तोड़ना) में धुरंधर के रूप में उसका नाम बेशक चर्चित है। 1568 ई. में ओडिशा पर उसके आक्रमण ने अंतिम हिंदू शासक को मिटा दिया और पुरी जैसे स्थानों को विशेष रूप से ज्यादा क्षति उठानी पड़ी। मूर्तियों को एक बार फिर किसी तरह चिल्का झील ले जाया गया। लेकिन कालापहाड़ को उनकी स्थान का पता चल गया और उसने मूर्तियों को तोड़ने और उनमें आग लगा देने के लिए आगे बढ़ा। एक तीर्थयात्री जली हुई मूर्तियों से ब्रह्मपदार्थ को पुनः प्राप्त करने में कामयाब रहा और उसे अपने मृदंग में छिपा कर रख लिया। लेकिन ओडिशा में शासक मुकुंददेव की हार और मृत्यु के साथ ही हिंदू शासन इस आक्रमण के परिणामस्वरूप समाप्त हो गया।
1575 ई. में रामचंद्रदेव नाम के एक राजा द्वारा पुरी में ब्रह्मपदार्थ को लाकर नयी मूर्त्तियों में पुनःस्थापित किया गया।
छठा आक्रमण
अगला बड़ा आक्रमण महज सत्रह साल बाद सुलेमान नाम के व्यक्ति ने किया, जो उसके पूर्ववर्ती सुलेमान कर्रानी का हमनाम था, जिसने 1592 ई. में मंदिर पर हमला किया था। पुरी के लोग बड़ी संख्यां में मारे गए और मंदिर पर हमला किया गया, जिसके परिणामस्वरूप कई मूर्तियों को तोड़ दिया गया। इस बार, मुगल सम्राट अकबर ने इन गतिविधियों को दबाने के लिए मान सिंह को ओडिशा भेजा। रामचंद्रदेव प्रथम को खुर्दा के शासक के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन उन्हें सौंप दिया गया। लेकिन एक पीढ़ी तक बंगाल सुल्तानों के अधीन रहने के बाद यह प्रांत अब मुगलों के अधीन आ गया। इस मुगलों के अदीन आने का व्यापक प्रभाव हुआ। अकबर के मरने के तुरंत बाद, चीजें वापस वैसी हो गईं।
सातवां आक्रमण
पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में पुरी में मंदिर पर छह अलग-अलग आक्रमण हुए। 1607 ई. में, मिर्ज़ा ख़ुरम नाम के बंगाल नवाब के एक कमांडर ने हमला किया, लेकिन मूर्तियों को कपिलेश्वर ले जाकर बचाया गया, जो लगभग पुरी से पचास किलोमीटर दूर है। लगभग एक साल बाद पुरी मंदिर में मूर्तियों को फिर से स्थापित किया गया।
आठवां आक्रमण
कुछ साल बाद, ओडिशा के मुगल सूबेदार कासिम खान ने मंदिर पर हमला किया। मूर्तियों को छिपाकर खुर्दा ले जाया गया, जहां उन्हें गोपाल मंदिर में स्थापित किया गया। मुगल शासक जहाँगीर को संतुष्ट करने को उत्सुक कासिम खान ने इस मंदिर के शहर में भरी लूटपाट मचाया| मूर्तियों को फिर एक बार पुरी लाया गया जब इस आक्रमण से उड़ी धूल बैठ गई।
नवां आक्रमण
ऐसा नहीं था कि केवल मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ही पुरी पर हमला किया था। नौवाँ आक्रमण केसोदारमारू नाम के व्यक्ति द्वारा किया गया था। 1610 ई. की रथयात्रा के दौरान, जब मूर्तियाँ गुंडिचा मंदिर (जगन्नाथ मंदिर के करीब) में थीं, कासिम खान के इस वफादार सेवक ने पुरी में जगन्नाथ मंदिर क्षेत्र पर हमला किया और वहां कब्जा कर लिया। वह इस आक्रमण के दौरान जगन्नाथ पुरी रथों को आग लगाने के लिए भी कुख्यात है। मंदिर में वह आठ महीने तक कब्ज़ा जमाये रहा, इस दौरान पुरुषोत्तम देव ने उनका विरोध करने की कोशिश की। अंत में, जहाँगीर को तीन लाख रुपये की घूस देने के कारण जगन्नाथ पुरी में मूर्तियों को पुनःस्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
दसवां आक्रमण
कासिम खान का बाद, कल्याण मल, जो टोडरमल (अकबर का प्रसिद्ध दरबारी) का पुत्र था, ओडिशा का सूबेदार बन गया। उसने दसवां आक्रमण, यह देखते हुए किया कि नौवें आक्रमण से खजाने में तीन लाख की बढ़ोत्तरी हुई। मूर्तियों को पहले ही चिल्का झील के मैसमारी में स्थानांतरित कर दिया गया था। यह 1611 ई की बात है।
ग्यारहवां आक्रमण
कल्याणमल ने फिर से आक्रमण कर पुरी को लूटा|
बारहवां आक्रमण
1612 ई. में, जहाँगीर ने मुकर्रम खान को ओडिशा का सूबेदार नियुक्त किया, और उसने भी अपने तीन पूर्ववर्तियों की तरह मंदिर पर आक्रमण की परंपरा को जारी रखा। मुकर्रम खान ने निर्दयता से शहर पर हमला किया और कई मूर्तियों को तोड़ दिया, लेकिन जगन्नाथ मंदिर पर उसके आक्रमण की आशंका से मंदिर के महत्त्वपूर्ण वस्तुओं और मूर्त्तियों को गोपपद ले जाया गया और फिर बांकनिधि मंदिर में ले जाया गया। इसके तुरंत बाद पानी में डूबने के कारण मुकर्रम खान की मृत्यु हो गई।
तेरहवां आक्रमण
यह मंदिर पर हमला नहीं था, बल्कि शाहजहाँ की राजनीतिक झगड़ा सुलझाने के क्रम में प्रान्त जीतते हुए आगे बढ़ते पूरे उड़ीसा पर हमला था। फिर मंदिर के तोड़े जाने की आशंका से मूर्तियों को कहीं और स्थानांतरित कर दिया गया।
चौदहवां आक्रमण
अमीर मुतकाद खान ने नरसिंह देव की मृत्यु के बाद की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाते हुए जगन्नाथ पुरी मंदिर पर हमला किया और इसे लूट लिया।
पन्द्रहवां आक्रमण
1647 ई. में, मुगल सूबेदार मुदबाक खान ने मंदिर पर हमला किया और प्रचंड लूट और हत्याएं कीं।
सोलहवां आक्रमण
औरंगजेब के उल्लेख के बिना आक्रमणों की सूची कैसे पुरी हो सकती है? 1692 ई. में, सह्याद्री में मराठों से लड़ते हुए, उसने मंदिर को जमींजोद कर देने का आदेश जारी किया। इससे पहले उसके शासनकाल में, कई मंदिर तोड़े गए थे – सबसे प्रसिद्ध काशी, मथुरा और सोमनाथ में। जगन्नाथ पुरी उसके घोषित उद्देश्यों में से एक था। तबज़िरत उल नाज़रीन और मडाला पणजी दोनों कहते हैं कि औरंगज़ेब ने मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट करने के आदेश जारी किया। बनर्जी द्वारा उड़ीसा का इतिहास इस घटना के वर्ष को 1697 ई. बताता है। लेकिन, यह तथ्य कि, ओडिशा का मुगल कमांडर एकराम खान वास्तव में मंदिर में घुसकर इसे क्षतिग्रस्त किया, कई वृत्तांतों में उल्लेख मिलता है। ब्रह्मपदार्थ को बचाकर बिमला मंदिर ले जाया गया और खुर्दा के शासक दिव्यसिंह प्रथम द्वारा संरक्षित किया गया। लकड़ी के मूर्त्तियों को जिसमें ब्रह्मपदार्थ रखा गया था, एकराम खान द्वारा नष्ट कर दिया गया था, हालांकि एक सूत्र से यह भी उल्लेख मिलता है कि वे चिल्का झील के पास बानापुर में स्थानांतरित कर दिए गए थे।
सत्रहवां आक्रमण
1717 ई. के आसपास मोहम्मद तकी खान ओडिशा का नायब नाज़िम या उप-राज्यपाल बना और 1733 ई. में पुरी के मंदिर पर हमला किया, जिससे व्यापक विनाश हुआ। पिछली बार की तरह जैसे ही पुजारियों को आसन्न हमले की हवा लगी वैसे ही मूर्तियों को दूर स्थानांतरित कर दिया गया, विभिन्न स्थानों से होते हुए अंततः कोडाला में एक पहाड़ी पर मंदिर में स्थापित किया गया, जहां 1736 ई. तक उनकी पूजा होती रही। मोहम्मद तकी खान की मृत्यु होने पर मूर्तियों को पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर में वापस स्थापित कर दिया गया। किसी को ऐसा लग सकता है कि पुरी में 1699 ई. से 1733 ई. तक के बीच शांत बहाल थी। ऐसा नहीं था। मुगल साम्राज्य के पतन हो रहे होने के कारण यह एक असहज शांति थी।
मराठों का आगमन और जगन्नाथ पुरी का कायाकल्प
यहां, हमें मंदिर के आक्रमण पर आक्रमण की गाथा को रोककर एक पचास वर्षीय अवधि पर नज़र डालना चाहिए, जिस दौरान ओडिशा में न केवल मुस्लिम शासन का विनाश हुआ बल्कि जगन्नाथ पुरी मंदिर आक्रमणों से मुक्त हुआ, और मराठा, या विशेष रूप से नागपुर के भोसले द्वारा इसका सांस्कृतिक कायाकल्प किया गया । उन्होंने 1742 ई. में ओडिशा पर आक्रमण करना शुरू किया, और 1751 ई. तक बंगाल नवाब – अलीवर्दी खान को प्रांत से बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद की शांतिकाल में जगन्नाथ मंदिर को विभिन्न त्योहारों पर दान और राज्य खर्च, तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाएं आदि के माध्यम से बहुत कुछ प्राप्त हुआ। यहाँ जगन्नाथ पुरी में नागपुर भोसले के योगदान का एक विस्तृत विवरण पढ़ें।
अठारहवां आक्रमण
दुर्भाग्यवश, मंदिर को ब्रिटिश शासन के दौरान एक आखिरी हमला झेलना पड़ा जब अलेख पंथ के कुछ सदस्यों ने मूर्तियों को आग लगाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए थे।
जगन्नाथ पुरी का इतिहास इतना दिलचस्प है|
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