त्रिकोणमिति में भारत का योगदान
त्रिकोणमिति (Trigonometry) जो की गणित की एक मुख्य शाखा है, उसमें प्राचीन भारतीय गणितज्ञों के योगदान को लेकर यह लेख लिखा गया है। भूमिति और कलनशास्त्र(Calculus) के बिच एक सेतु स्वरूप कार्य त्रिकोणमिति करती है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत मत है। आधुनिक त्रिकोणमिति का उद्भव आइज़ेक न्यूटन, लेइब्निज़ और जेम्स ग्रेगोरी के समय में यानि की (१६७०-१६८० CE) में हुआ। लेकिन त्रिकोणमिति के सबसे प्राचीनतम मूल आर्यभट्ट के सूर्यसिद्धांत में दिखाई पड़ते है। उसके बाद यह ज्ञान आरबो के पास गया और वहां से यह ज्ञान यूरोप गया। ९ वि शताब्दी तक इस्लामी गणित में भी त्रिकोणमिति का प्रयोग होने लगा था। उसके बाद १५ वीं शताब्दी में केरल के संगमग्राम के माधव ने त्रिकोणमित्तीय श्रेणी (Trigonometric Series) का अध्ययन किया।
सूर्यसिद्धांत और त्रिकोणमिति
सूर्यसिद्धांत जैसा की नाम से ही पता चलता है की खगोलशास्त्रीय सिद्धांत-ग्रंथो का समूह है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग रचित लगता है, लेकिन उसका सबसे प्राचीन लिखित उल्लेख इसा पूर्व की तीसरी सदी में मिलते है। सूर्यसिद्धांत में खगोल की कुछ घटनाए जैसे की ब्रह्मांडीय पिंडो की गति, तारो की स्थिति और ग्रहण का आकलन लगाने की समजुती और सूत्र है।
प्राचीन गणित में ज्या का अर्थ Sin θ , कोटिज्या का अर्थ Cos θ, स्पर्शज्या का अर्थ Tan θ होता है। और यही शब्दावली सूर्यसिद्धांत में भी मिलती है। शब्द का यह परिवर्तन अरबस्तान से यूरोप जाने की बजह से हुआ है। इतना ही नहीं, सूर्यसिद्धांत के तृतीय अध्याय (त्रिप्रश्नाधिकारः) में ही सबसे पहले स्पर्शज्या (tangent) और व्युकोज्या (secant) का प्रयोग हुआ है। Tangent और secant का उपयोग निम्नलिखित श्लोको में हुआ है जिससे शंकुक की छाया का आकलन मिल सकता है।
शेषम् नताम्शाः सूर्यस्य तद्बाहुज्या च कोटिज्या।
शंकुमानांगुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम् ॥ ३.२१ ॥
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णाव् अहर्दले।
क्रान्तिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शंकुजीवया ॥ ३.२२ ॥
उपरोक्त सूत्र से, आधुनिक प्रतीकों का उपयोग करते हुए, दोपहर के समय शंकुक (gnomon) की छाया(shadow) की लम्बाई यह होगी-
s=g sin θ / cos θ = g tan θ
तथा, दोपहर के समय, शंकुक के विकर्ण (hypotenuse) की लम्बाई यह होगी-
h = gr/cos θ = gr sec θ
जहाँ g शंकुक की लम्बाई (उंचाई) है, r शंकुक की त्रिज्या है, s शंकुक की छाया की लम्बाई है, और h शंकुक का विकर्ण है।
माधव श्रेणी
संगमग्राम के माधव ने इसा की १५ वीं शताब्दी में माधव श्रेणी का आविष्कार किया। माधव को केरल गणित सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि, मिशनरी और यूरोपीय व्यापारिओं द्वारा यह ज्ञान प्रसारित होक यूरोप पहुंचा जिससे वहां के विज्ञान के विकास पर भी असर पड़ा। माधवश्रेणी को आधुनिक गणित में लेइब्नित्ज़ श्रेणी कहा जाता है। ऐसी बहुत श्रेणीओ का वर्णन पुस्तक युक्तिभाषा में मिलता है।
एक श्लोक में माधव ने वृत्त की परिधि और उसके व्यास का सम्बन्ध (अर्थात पाई का मान) बताया है जो इस श्लोक में भूतसंख्या के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है-
विबुधनेत्रगजाहिहुताशनत्रिगुणवेदाभवारणबाहवः
नवनिखर्वमितेवृतिविस्तरे परिधिमानमिदं जगदुर्बुधः
इसका अर्थ है- 9 x 1011 व्यास वाले वृत्त की परिधि 2872433388233 होगी।
माधव ने sine, cosine, tangent और arctangent त्रिकोणमीतीय फलनों के लिए अनंत श्रेणी की खोज की और एक वृत्त(Circle) की परिधि की गणना के लिए भी कई तरीके निकाले. युक्तिभाषा पुस्तक से ज्ञात माधव की एक श्रेणी है, जो स्पर्शज्या की घात श्रेणी का देती है, इसकी खोज माधव द्वारा ही की गयी थी। जिससे मिलता है की,
पहले इस श्रेणी को ग्रेगोरी श्रेणी कहा जाता था, जो की माधव से तीन शताब्दी बाद हुए। लेकिन बाद से आज तक इस श्रेणी को माधव-ग्रेगोरी-लेइब्नित्ज़ श्रेणी कहा जाता है।
Reference
- Surya-Siddhanta: A Text Book of Hindu Astronomy (1858) by Ebenezer Burgess
- Indians predated Newton ‘discovery’ by 250 years, Press release, University of Manchester.
- R C Gupta (1975). “Madhava’s and other medieval Indian values of pi”. Math Education 9 (3):
- The Kerala School, European Mathematics and Navigation, Indian Mathematics. D.P. Agrawal—Infinity Foundation.
- Vedic Mathematics by Suresh Soni
- Neither Newton nor Leibnitz (Dr. Sharda)
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