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तीन तलाक़ पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला: रूढ़िवादी प्रथा को जड़ से खत्म करने की कोशिश

तीन तलाक़ पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला: रूढ़िवादी प्रथा को जड़ से खत्म करने की कोशिश

18 महीने के लम्बे इंतज़ार के बाद “एक बैठक में तीन तलाक़” के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने आखिरकार बड़ा फैसला सुना ही दिया। सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने 3:2 के मत से तीन तलाक के खिलाफ फैसला सुनाया और इसे असंवैधानिक बताते हुए कहा कि “इससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन होता है”।
परन्तु इस मामले पर चीफ जस्टिस जे एस खेहर का कहना था कि “यह धार्मिक और भावनाओं से जुड़ा मामला है, लिहाज़ा इसे एकदम से समाप्त नहीं किया जा सकता”। उन्होंने केंद्र सरकार को 6 महीने में तीन तलाक पर कानून बनाने तथा इस पर तत्काल रोक लगाने के भी निर्देश दिए।
इस्लाम में तलाक़ का अधिकार पुरुषों को इसलिए दिया गया है कि यदि किसी कारणवश उन्हें ये लगे कि शादी आगे जारी रख पाना कठिन है, तो वो अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकतें हैं। यह बिलकुल महिलाओं को दिए गए तफ्वीज़-ए-तलाक़ या खुला के अधिकार के समान है, जिसका अर्थ यह है कि यदि मुस्लिम महिला ये समझती है कि अब एक साथ रह पाना नामुमकिन है तो वो भी अपने शौहर को खुद तलाक दे सकती है (तफ्वीज़-ए-तलाक़) या उससे तलाक़ (खुला) मांगने का हक़ रखती है।
लेकिन तलाक़ का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि मैसेज, व्हाट्सप्प जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट के ज़रिये ट्रिपल तलाक़ देकर निकाह के पाक और पवित्र बंधन को समाप्त किया जाए। बल्कि तलाक़ के बाद तीन महीने की अवधि के लिए इंतजार करना पड़ता है। ये निर्धारित समय इसलिए दिया गया है कि यदि इस अवधि में बीवी या शौहर दोनों के मन में परिवर्तन हो जाता है या संबंधित समस्या पारस्परिक रूप से हल हो जाती है तो वे निश्चित रूप से शादी आगे जारी रख सकें।
क़ुरान का आदेश यह है कि “तलाकशुदा महिलाएं तीन महीनों की अवधि में रहें, यह उनके लिए वैध नहीं कि जो अल्लाह ने उनके गर्भ में बनाया है वे इसे छिपाएं, यदि वे अल्लाह और अंतिम दिन में विश्वास करती हैं! और उनके शौहर को इस [अवधि] में उन्हें वापस लेने का अधिकार है यदि वे सुलह करना चाहते हैं क्यूंकि शौहर पर अपनी पत्नी की ज़िम्मेदारी है! अल्लाह सर्वोच्च, सब कुछ जानने वाला और ज्ञानी है” (क़ुरान 3:28)
दूसरी बार दोनों के बीच यदि फिर से विवाद होता है तो एक बार फिर इसी प्रक्रिया से तलाक़ दिया जा सकता है। दूसरी दफा तलाक़ की सूरत में क़ुरान का कहना है कि, “अपनी बीवियों को अपने साथ रखें या अच्छे अख़लाक़ या व्यवहार के साथ अलग हो जाएं”( क़ुरान 2:229)
इस बीच परिवार के सदस्यों की जिम्मेदारी है कि उनके मसलों को सुलझाने की कोशिश करें। तीसरी दफा का तलाक़ पुरुष को दिया गया आखिरी मौका होता है, यदि उसे लगे कि हालात बुरी तरह कठिन हो गए हैं, तो वह तलाक़ दे सकता है। इसके पश्चात् वह उसके लिए वैध न होगी (क़ुरान: 2:230)
तीसरी तलाक़ देने के बाद आख़िरकार निकाह खत्म हो जाता है। पुरुष को दिए गए तीन मौके समाप्त हो जाते हैं। अब वह औरत उसके लिए तब तक वैध न होगी जब तक वह किसी और से निकाह न कर ले और उसका शौहर उसे तलाक़ न दे दे।
गौरतलब यह है कि तीन तलाक़ की इस कुरानी प्रक्रिया में कई महीनों का वक़्त गुज़रता है जिसमें पति पत्नी दोनों को अपने फैसलों पर पुनर्विचार के कई अवसर मिलते हैं। ये है इस्लाम में तलाक़ देने का सही तरीका। एक ही बार में तीन तलाक़ कभी भी इस्लाम का मौलिक हिस्सा नहीं रहा है। बल्कि यह जितना असंवैधानिक है, उतना ही गैर-इस्लामी भी। इस सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बिलकुल क़ुरान के मुताबिक है।
अल्लाह या अंतिम संदेशवाहक मुहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम द्वारा कहीं नहीं कहा गया कि एक बार में तीन तलाक़ दिया जा सकता है। व्हाट्सप्प और मैसेज जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ज़रिये दिए जाने वाले तलाक़ की तो बात ही छोड़िये। क़ुरान तो ये कहता है कि यदि तुम्हें अपनी पत्नियों में निनानवे बातें नापसंद हों, और सिर्फ एक ही चीज़ अच्छी लगे फिर भी उनके साथ अच्छे अख़लाक़ और किरदार से पेश आओ।
पति और पत्नी के बीच संबंध का वर्णन करते हुए क़ुरान ने ‘लिबास’शब्द का उपयोग किया है जिसका अर्थ  है “परिधान”। क़ुरान कहता है कि पति और पत्नी एक-दूसरे के लिए ‘वस्त्र’ के समान हैं। (कुरान 2: 187)
वस्त्र का कार्य होता है की वो आपको सुन्दर दिखाता है, आपके बदन को ढंकता है, आपको आराम देता है। इसी प्रकार पति और पत्नी भी एक दूसरे के संरक्षक और सहायक होते हैं। क़ुरान कहता है कि “यदि पुरुष अपनी पत्नि में कुछ नापसंद करता है और फिर भी उसे सहन करके उसके साथ रहता है तो अल्लाह उसे आख़िरत में इसका बेहतर अजर और इनाम अता फरमाएगा”। और यही पैगंबर मुहम्मद (स।अ) की शिक्षाओं में भी प्रतिबिंबित है। उन्होंने फ़रमाया: “तुममे से सबसे बेहतर शख्स वह है जो अपनी पत्नी के लिए सर्वश्रेष्ठ हो”।
अफ़सोस इस बात का है कि मुस्लिम धर्मगुरु और मौलवी-मौलाना ने इन सब बातों को अवाम तक नहीं पहुंचाया। विडंबना यह है कि तलाक़ देते समय क़ुरान और पैग़म्बर (सलालहु अलैहि वसल्लम) के निर्देशों का पालन नहीं किया जाता। इस्लामी विद्वानों और धार्मिक संगठनों ने इसके लिए कुछ नहीं किया. परिणामस्वरूप, मुस्लिम महिलाएं आज कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रही हैं।
हम स्वीकार करें ना करें, कड़वी सच्चाई यही है कि मुसलमानों ने तीन तलाक और हलाला जैसी ग़ैर-कानूनी और ग़ैर-कुरानी परंपरा को आस्था के नाम पर अपने समाज में फलने फूलने का भरपूर मौक़ा दिया। इस फैसले से सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार इस रूढ़िवादी प्रथा को जड़ से खत्म करने का प्रयास किया है, जो एतिहासिक और सराहनीय तो है लेकिन अभी अधुरा है।

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