वैदिक कालगणना १: ऋतुबद्ध माघमास से वैदिक नए वर्ष प्रारम्भ
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इस शृंखला के लेखों में हम समय के गणना की वैदिक प्रणाली के मौलिक सिद्धान्तों पर चर्चा करेंगे। साथ-ही-साथ हम यह भी देखेंगे कि ये वर्तमान में “हिन्दु पञ्चाङ्ग (कैलेण्डर)” में इस्तेमाल होने वाले सिद्धान्तों से किस प्रकार से अलग हैं। इस चर्चा से वर्तमान में “हिन्दु नया साल” के रूप में प्रसिद्ध चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा के दर्जे का भी ख़ुलासा हो गाएगा। इस चर्चा से यह भी ख़ुलासा हो जाएगा कि वैदिक ज्योतिष के अंतर्गत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर मनाया जाने वाला “हिंदू नया साल” न ही वैदिक वर्ष की शुरुआत है और न ही बसंत ऋतु की।
इस लेख से स्पष्ट होगा कि वैदिक समय के गणना की प्रणाली न केवल प्रकृति के सिद्धान्त पर ही आधारित है, बल्कि यह मानव जीवन के मापदण्डों को दैवीय मापदण्डों के साथ सामजस्य रखने के सिद्धान्त पर भी आधारित है। वैदिक वर्ष इसी सामंजस्य का उदाहरण है । इस लेख में वैदिक वर्ष की शुरुआत, जो की “सौर-चान्द्र उत्तरायण” का पहला दिन है, का भी विस्तार से वर्णन किया जाएगा ।
शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, और ज्योतिष — इन छः वेदांगों में ज्योतिष छठा वेदांग है। ज्योतिष का महत्त्व वेदांग-ज्योतिष में लगधमुनि द्वारा कुछ इस प्रकार समझाया गया है:
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्व्या विहिताश् च यज्ञाः ।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान् ।। ३।।
अर्थात् वेद यज्ञों के लिए हैं और यज्ञ निर्धारित समय के अनुसार किये जाते हैं । (अत:) जो ज्योतिष को जानता है वही पूरी तरह से यज्ञ को समझने में सक्षम है।
सूरज पृथ्वी की सभी मौसमी गतिविधियों को प्रभावित करता है और सूरज के कारण पृथ्वी में होने वाले ऋतुपरिवर्तन को लोग आसानी से समझ सकते हैं। ऋतु के अतिरिक्त वैदिक परम्परा में चन्द्र-मास, तिथि और चन्द्र-नक्षत्र को भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
१. उत्तरायण क्या है?
पृथ्वी की धुरी का झुकाव (पृथ्वी के अपने अक्ष और कक्षा में घूमने के बीच का कोण) और इसकी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने की प्रक्रिया से पृथ्वी पर ऋतु-परिवर्तन होता है। हर वर्ष सूर्य जिस दिन पृथ्वी के सापेक्ष दक्षिणी बिन्दु तक पहुँच कर उत्तर की ओर वापस आना शुरू करता है उस दिन उत्तरायण की शुरुआत होती है। साथ-ही-साथ यह दिन पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध का सबसे छोटा दिन भी होता है । इसके अलावा उसी दिन से उत्तरायण के पूरे होने तक दिन की लम्बाई तब तक बढ़ती रहती है जबतक सूर्य उत्तरी बिन्दु तक नहीं पहुँच जाता। इसे वेदाङ्ग-ज्योतिष में कुछ इस तरह से समझाया गया है:
घर्मवृद्धिरपां प्रस्थ: क्षपाह्रास उदग्गतौ ।
दक्षिणेतौ विपर्यासः षण्मुहूर्त्ययनेन तु ।। ८।।
अर्थात् – उत्तरायण में हरेक दिन की लम्बाई में (नाडिका यन्त्र, या पानी की घड़ी) में १ प्रस्थ (प्रस्थ आयतन की प्राचीन इकाई है) का इज़ाफ़ा और रात की लम्बाई में उतनी ही कमी होती है। दक्षिणायन में, इसके विपरीत, दिन की लम्बाई में १ प्रस्थ की कमी और रात की लम्बाई में उतनी ही बढ़ोत्तरी होती है। एक आयन में दिन की कुल बढ़ोत्तरी या कमी छः मुहूर्तों की होती है।
इससे यह साफ ज़ाहिर होता है कि वैदिक परम्परा में सौर उत्तरायण दिन की लम्बाई के अनुसार तय किया जाता है। हालाँकि कई अन्य पद्धतियाँ, जैसे छाया की लम्बाई को नापने वाली, भी उपलब्ध हैं जिसका वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी किया गया है। पर आजकल निरयण पद्धति के प्रचलित होने की वजह से मकर संक्रान्ति को उत्तरायण की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है। पर यह दरअसल उत्तरायण (२१ दिसंबर) से २३ दिनों के बाद आता है। हालाँकि वेदांग-ज्योतिष के ऊपर लिखे श्लोक से पहले के दो श्लोकों में अयन के शुरुआत के लिए ख़ास नक्षत्रों का भी ज़िक्र है। अवलोकन के आधार पर निर्धारित नक्षत्रों का उल्लेख पहले किया गया है जो कि वेदांग-ज्योतिषी के लिखे जाने के समय के लिए उपयुक्त थी। उसके बाद सभी समय के लिए अयनारम्भ संक्रान्ति की परिभाषा दी गई है। यह पूरी तरह से वैदिक परम्परा के अनुरूप है जिसके अन्तर्गत लोगों को अयन चलन जानकारी थी। (इस शृंखला में बाद के लेखों मे इसकी चर्चा की जाएगी)
२. क्या वेदों में और वैदिक परम्परा में सौरमास आदि का प्रचलन है?
वर्तमान पद्धति में हम देखते हैं कि राशि चक्र पर आधारित सौर महीने जैसे कि मकर मास, तुला मास आदि के साथ-साथ नक्षत्र पर आधारित चान्द्र मास के नाम जैसे माघ, फाल्गुन आदि का भी प्रयोग होता है। कुछ क्षेत्रों में चन्द्रमा के महीनों के नाम, जैसे माघ, फाल्गुन इत्यादि, को भी राशि चक्र में सूर्य की स्थिति के आधार पर सौर महीनों के लिए उपयोग किया जाता है। इस वर्तमान पद्धति ने इस गलत अवधारणा को प्रेरित किया है कि दोनों, सौर महीने और चान्द्र महीने, वैदिक हैं। यह भी भ्रम है कि वर्ष की शुरुआत मधुमास अथवा चैत्र से है और इसकी मान्यता भी वेदों से ही है। वैदिक वर्ष की शुरुआत, वसंत ऋतु ,तथा मधु, माधव इत्यादि माह के नामों को सौरमास मानने के बारे में भी गलतफहमी है क्योंकि वेदों में जहाँ कहीं भी महीनों के नामों की सूची की चर्चा है वहाँ मधु हमेशा पहला महीना होता है।
इसलिए सबसे पहले हम समझने का प्रयास करें कि वैदिक प्रणाली वास्तव में क्या कहती है। वेदों में दो प्रकार के नाम महीने के लिए प्रयोग किए गयें हैं । संहिताओँ में हम हमेशा मासनामों को मधु, माधव आदि के रूप में पाते हैं । ब्राह्मणों और कल्पसूत्रों (श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र) में नक्षत्र पर आधारित नाम जैसे चैत्र, वैशाख आदि का प्रयोग किया गया है, जो नाम के हिसाब से नक्षत्र के साथ सम्बन्ध दिखाते हैं। संहिताओँ में इस्तेमाल किए गए नाम हमेशा अंहसस्पति के साथ जुड़े है। अंहसस्पति साल के तेरहवें महीने का, यानी की अधिकमास का, वैदिक नाम है। और अधिकमास केवल चान्द्रवर्ष में ही हो सकता है, सौर में नहीं (अधिकमास का वर्णन इस लेख-शृंखला के बाद के भागों में किया जाएगा)। इसके अलावा एक वर्ष में १२ महीने या १३ महीने होने का उल्लेख, और हर महीने के दो अर्धमास (पक्ष) में बँटे (इन को क्रमशः शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष कहते हैं) होने का वर्णन भी वेद के मधु, माधव इत्यादि महीनों का चान्द्र महीने होना ही सिद्ध करता है। इस प्रकार वेदों में पाए जाने वाले दो प्रकार के नामों को समानार्थक जाना जाता है। इसका प्रमाण वेदों के सभी भाष्यों और साथ ही साथ अन्य प्राचीन ग्रन्थों में, जहाँ-जहाँ भी इनकी चर्च हुई है, भी मिलता है। हालांकि वेदांग-ज्योतिष में सौर गणितीय मानों के संदर्भ में, “१२ सौर महीने / १२ सूर्य” (श्लोक २८) का उल्लेख है। लेकिन कहीं भी, वेदों में या वेदांग-ज्योतिष सहित परम्परा से प्रमाणित वेदांगो में, सौर महीनों का कोई भी नाम नहीं दिया गया है। इस प्रकार आसानी से यह माना जा सकता है कि सौर महीनों के बारे में बयान सिर्फ़ गणितीय उद्देश्य के लिए है। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता (सूत्रस्थान ६/१०) और आयुर्वेद के सभी प्राचीन ग्रन्थों में चान्द्र महीनों के आधार पर ही ऋतुओं का उल्लेख किया गया है। साथ ही साथ आयुर्वेद की ऋतुचर्या (आहार विहार) के लिए भी चाँद्र महीनों का ही इस्तेमाल किया गया है। इस से यह स्पष्ट है कि वैदिक महीने चान्द्र महीने ही हैं और वेदों में सौर महीने नहीं हैं ।
३. सौर-चान्द्र उत्तरायण क्या है और वैदिक वर्ष उसके पहले दिन के साथ क्यों शुरू होता है?
वैदिक प्रणाली में, जहाँ सम्पूर्ण व्यावहारिक महीने, ऋतु और वर्ष शुक्ल प्रतिपदा से ही शुरू होते हैं, सौर उत्तरायण संक्रान्ति के दिन को महीने या वर्ष के शुरुआत के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है। वेदांग-ज्योतिष में-
माघशुक्लप्रपन्नस्य पौषकृष्णसमापिन:।
युगस्य पञ्चवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते।। ५।।
कहकर काल के ज्ञान को माघ महीने के शुक्ल प्रतिपदा से शुरु होकर पौष महीने के अमावस्या में ख़त्म होने वाले पाँच वर्षों के युग के रूप में बताया गया है (यह माघ वो नहीं है जो प्रचलन में है, जिसे नीचे समझाया जाएगा) । माघ को विभिन्न पुराणों में भी वर्ष के पहले महीने के रूप में दिखाया गया है:
वर्षाणामपि पञ्चानामाद्य: संवत्सर: स्मृत:।
ऋतूनां शिशिरश्चाऽपि मासानां माघ एव च ।। ब्रह्माण्डपुराण (पूर्वभाग २४।१४१) वायुपुराण (१।१५३।११३) लिङ्गपुराण (१।६१।५२) ।
अर्थात्- पाँच वर्षों में (वैदिक युग के ५ वर्षों में) संवत्सर पहला वर्ष है, ऋतु में (पहला है) शिशिर और महीनों में (पहला है) माघ।
अधिकमास या मलमास वैदिक प्रणाली में (केवल अयन के अन्त्य में) उपयुक्त फ़ासले (तीस या छत्तीस महीने के अन्तराल) पर जोड़ा जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है जिससे की पृथ्वी का सूरज के चारों ओर घूमने वाली सालाना गतिविधि की वजह से होने वाले ऋतु परिवर्तन और चाँद्र महीनों में सामंजस्य बना रहे।
इससे यह तात्पर्य निकलता है कि वैदिक माघ (तप:) का महीना हमेशा वास्तविक उत्तरायण संक्रान्ति के आसपास होता है। इस ऋतुबद्ध माघ (तप:) में वैदिक वर्ष की शुरुआत होती है, ऐसा ऊपर की चर्चा से स्पष्ट
है। साथ ही साथ वैदिक परम्परा में देवस की अवधारणा पुनः इस बात की पुष्टि करता है। यज्ञों के समय निर्धारण में ऋतुएँ स्पष्ट रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। ऋतुओं का कृषि एवं खेती-बाड़ी से भी सीधा सम्बंध है। हालाँकि वर्तमान पद्धति में त्योहारों का समय ऋतु में आधारित वैदिक प्रणाली के विपरीत निरयण प्रणाली (नक्षत्र से सम्बद्ध प्रणाली) के अनुसार होता है, वैदिक प्रणाली का प्रचलन वसन्त पञ्चमी (सरस्वती पूजा) जैसे त्योहारों में देखा जा सकता है। वसंत पंचमी ज्यादातर वैदिक सौर-चान्द्र वसन्त ऋतु में ही (इस वर्ष १ फरवरी को) मनाया जाता है। जबकी वर्तमान प्रणाली के अन्तर्गत यह पर्व शिशिर ऋतु में माघ-शुक्ल पंचमी होना चाहिए। पर वास्तव में वैदिक प्रणाली के अनुसार मधु-शुक्ल-पञ्चमी (चैत्र-शुक्ल-पञ्चमी) ही वसंत पंचमी है ।
वेदों में जहाँ-जहाँ महीनों के नाम आते हैं वहाँ मधु (वसन्त ऋतु का पहला महीना) का पहले उल्लेख किया गया है। इस लिये भी यह भ्रम पैदा हुआ है कि यह वैदिक वर्ष का पहला महीना है । वास्तव में यह अग्न्याधान और संस्कारों के लिए अलग-अलग वर्णों के लिए निर्धारित ऋतु के क्रम से संबंधित है। वसन्त को प्रथम वर्ण अर्थात् ब्राह्मण वर्ण के लिए निर्धारित किये जाने से पहला उल्लेख वसन्त ऋतु का किया गया है । यह बात श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और वेदाङ्ग-ज्योतिष की सोमाकर-भाष्य से भी स्पष्ट हो जाती है ।
४. मनुष्य के वर्ष को देवों का दिन क्यों कहा जाता है?
मानव उपयोग के लिए जो एक वर्ष होता है उसको वैदिक परम्परा में देवों का एक दिन अथवा अहोरात्र (अर्थात् दिन और रात) माना जाता है। उनके लिए उत्तरायण दिन होता है और दक्षिणायन रात । इस अवधारणा को वेदों, स्मृतियों और पुराणों में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है:
देवों का एक दिन एक वर्ष होता है ।– तैत्तिरीयकृष्णयजुर्वेदब्राह्मण । (३/९/२२/१)
जब वह (सूर्य) उत्तर की ओर बढ़ रहा होता है, वह देवों के मार्ग में जा रहा होता है और देवों की रक्षा करता है ।– माध्यन्दिनीय-वाजसनेयि-शुक्लयजुर्वेद-शतपथब्राह्मण । ( २/१/३/३)
दैवे रात्र्यहनी वर्षम् प्रविभागस् तयो: पुन:।
अहस् तत्रोदगयनं रात्रि: स्याद्दक्षिणायनम् ।। मनुस्मृति (१/६७), महाभारत (१२/२३१/१७)
अर्थात्- एक दिव्य दिन और रात मानव उपयोग के लिए एक वर्ष है । दिन उत्तरायण और रात दक्षिणायन है ।
इसी श्लोक का उल्लेख ब्रह्माण्ड-पुराण आदि पुराणों में भी किया गया है।
क्योंकि वर्ष, अयन, ऋतु, महीना सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए शुक्ल प्रतिपदा से ही शुरू होते हैं, जैसा की ऊपर की चर्चा में स्पष्ट है, दैव दिन और वैदिक वर्ष भी माघ शुक्ल प्रतिपदा से ही शुरू होता है। यह ज्यादातर वास्तविक सौर उत्तरायण के ठीक पहले की शुक्ल प्रतिपदा है (जिस वर्ष अधिकमास होता है, तब माघ शुक्ल प्रतिपदा सौर उत्तरायण के कुछ दिन बाद भी जा सकती है)। उदाहरण के लिए, वर्तमान वैदिक वर्ष ३० नवंबर २०१६ (उत्तरायण संक्रान्ति से २२ दिन पहले) प्रारम्भ हुआ, क्योंकि यह शुक्ल प्रतिपदा उस संक्रान्ति के ठीक पहले थी। और अगला वर्ष अधिकमास होने के कारण १८ दिसंबर २०१७ पर पड़ने वाली शुक्लप्रतिपदा को (सौर उत्तरायण दिन से ३ दिन पहले) प्रारम्भ होगा । हर १९ वर्षों मे ये दोनों (शुक्ल प्रतिपदा और उत्तरायण संक्रान्ति) एक ही दिन में पड़ते हैं ।
इस शृंखला के अगले लेख में, हम वैदिक समय माप करने की प्रणाली की इकाईयाँ, सौर वर्ष में वास्तविक उत्तरायण और सम्पात दिनों की पहचान करने के लिए व्यावहारिक प्राचीन विधि, और वैदिक अधिकमास पर चर्चा करेंगे।
टिप्पणी : इस लेख में उल्लिखित वेदाङ्ग-ज्योतिष की श्लोक संख्याएँ यजुर्वेदी वेदाङ्ग ज्योतिष की श्लोक संख्या को दिखाती हैं ।
शब्दावली
अयन = एक वर्ष का आधा जो सूर्य की स्पष्ट वार्षिक गति के आधार पर विभाजित है । उत्तरायण संक्रान्ति से छः महीनों में सूर्य उत्तर की तरफ जाता दिखाई देता है जिसे उत्तरायण कहा जाता है। फिर अगले छः महिनों में सूर्य दक्षिणी बिन्दु पर वापस आता दिखाई देता है जिसे दक्षिणायन कहते है । वैदिक पद्धति में इस्तेमाल किए जाने वाले सौर-चान्द्र उत्तरायण और दक्षिणायन क्रमश: इन बिन्दुओं के नजदीक पड़ने वाली शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होते हैं ।
अयनचलन (संक्रान्ति / विषुव का चलन) = संक्रान्ति / विषुव के समय पृष्ठभूमि बिन्दु का चलन (जहां सूर्य दिखाई देता है) । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि नाक्षत्र वर्ष की तुलना में सौर वर्ष कम (लगभग 20 मिनट छोटा) होता है।
निरयण प्रणाली = अयनचलन को ध्यान न देकर सूर्य / चन्द्र की स्थिति (पृष्ठभूमि में स्थित नक्षत्र) के आधार पर महीनों / त्योहारों का निर्धारण करने की अर्वाचीन प्रणाली । सायन प्रणाली में अयन चलन को ध्यान में रखा जाता हैं।
शुक्ल-पक्ष = अमावस के दूसरे दिन (शुक्ल-प्रतिपदा) से पूर्णिमा तक का भाग। जहाँ चाँद का सूरज की रोशनी से उजाला भाग पृथ्वी से क्रमश: बढ़ता दिखाई देता है ।
कृष्ण-पक्ष = महिने में पूर्णिमा के अगले दिन(कृष्ण-प्रतिपदा) से अमावस तक का भाग(जिस दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता है)
चान्द्रमास = वैदिक पद्धति में उस २९ या ३० दिनों का समय (वास्तविक अवधि लगभग २९ .५ दिन) को महीना कहा जाता है, जो अमावस के अगले दिन (शुक्ल प्रतिपदा) से अगले अमावस के दिन (अमावस्या) तक का होता है । (इसे अमान्त मास कहते हैं । (अमावस को समाप्त होने वाले चान्द्र महीने ही वैदिक प्रणाली में मुख्य रूप में उपयोग किये जाते हैं)
प्रमुख आधारग्रन्थ
१. माध्यन्दिनीयवाजसनेयिशुक्लयजुर्वेद (मन्त्रसंहिता और शतपथब्राह्मण )
२. तैत्तिरीयकृष्णयजुर्वेदसंहिता और ब्राह्मण
३. मैत्रायणीयकृष्णयजुर्वेदसंहिता
५. पारस्करगृह्यसूत्रम्
६. वेदाङ्गज्योतिषम् – सोमाकरभाष्य तथा कौण्डिन्न्यायनव्याख्यान और हिन्दी अनुवाद सहित;
शिवराज आचार्य कौण्डिन्न्यायन, चौखम्बाविद्याभवन (२००५)
७. मनुस्मृति:
८. ब्रह्माण्डपुराणम्
९. वायुपुराणम्
१०.सुश्रुतसंहिता ।।
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